आउटलुक के अप्रेल अंक में मेहदी हसन पर मेरा लेख फोटो सेक्शन में है, जो कि संपादित है , उसे मूल रूप में यहां पढें-
29 March 2010 at 20:07
आवाजों को सरहदों के पार जाने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए राजस्थान के लूणा गांव की आवाज रेत के धोरों में बहती हुई पाकिस्तान में मेहदी हसन तक पहुंच जाती है और वे यहां आने के लिए छटपटाने लगते हैं। पाकिस्तान से खबर है कि अस्वस्थ होने के बावजूद वे एक बार फिर अपनी जन्म भूमि पर आना चाहते हैं।
राजस्थान के शेखावाटी अंचल में झुंझुनूं जिले के लूणा गांव की हवा में आज भी मेहदी हसन की खुशबू तैरती है। देश विभाजन के बाद लगभग 20 वर्ष की उम्र में वे लूणा गांव से उखड़ कर पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन इस गांव की यादें आज तक उनका पीछा करती हैं। वक्त के साथ उनके ज्यादातर संगी-साथी भी अब इस दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन गांव के दरख्तों, कुओं की मुंडेरों और खेतों में उनकी महक आज भी महसूस की जा सकती है।
छूटी हुई जन्म स्थली की मिट्टी से किसी इंसान को कितना प्यार हो सकता है इसे 1977 के उन दिनों में झांक कर देखा जा सकता है जब मेहदी हसन पाकिस्तान जाने के बाद पहली बार लूणा आए और यहां की मिट्टी में लोट-पोट हो कर रोने लगे। उस समय जयपुर में गजलों के एक कार्यक्रम के लिए वे सरकारी मेहमान बन कर जयपुर आए थे और उनकी इच्छा पर उन्हें लूणा गांव ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर बढ़ रहा था तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रूकवा दी। काफिला थम गया। सड़क किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर था, जहां रेत में लोटपोट हो कर वे पलटियां खाने लगे और रोना शुरू कर दिया। कोई सोच नहीं सकता था कि धरती माता से ऐसे मिला जा सकता है। ऐसा लग रहा था जैसे वे मां की गोद में लिपटकर रो रहे हों।
इस दृश्य के गवाह रहे कवि कृष्ण कल्पित बताते हैं-' वह भावुक कर देने वाला अद्भूत दृश्य था। मेहदी हसन का बेटा भी उस समय उनके साथ था। वह घबरा गया कि वालिद साहब को यह क्या हो गया? हमने उनसे कहा कि धैर्य रखें, कुछ नहीं होगा। धीरे-धीरे वह शांत हो गए। बाद में उन्होंने बताया कि यहां बैठ कर वे भजन गया करते थे।' मेहदी हसन ने तब यह भी बताया था कि पाकिस्तान में अब भी उनके परिवार में सब लोग शेखावाटी में बोलते हैं। शेखावाटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती है।
मेहदी हसन के साथ इस यात्रा में आए उनके बेटे आसिफ मेहदी भी अब पाकिस्तान में गजल गाते हैं और बाप-बेटे का एक साझा अलबम भी है-''दिल जो रोता है' ।
मेहदी हसन जब पहली बार लूणा आए तो पूरे गांव में हल्ला मच गया था-' मेंहद्यो आयो है, मेंहद्यो आयो है। ' मेहदी हसन जहां जाते, लोग उनका छाछ-राबड़ी और दूध-दही से स्वागत करते। इस यात्रा में झुंझुनूं में जिला कलेक्टर ने उनके सम्मान में रात्रि भोज दिया था, लेकिन मेहदी हसन बिना बताए झुंझुनूं की एक बस्ती में अपने रिश्ते की एक बहन के घर पहुंच गए और वहां मांग कर लहसन की चटनी के साथ बाजरे की रोटी खाई। प्रशासनिक अधिकारी उन्हें ढूंढते रहे।
इस बार जब मेहदी हसन अपने गांव आएंगे तो शायद यह कहने वाला कोई नहीं मिलेगा कि 'मेंहद्यो आयो है।' गांव में अब एक नई पीढ़ी जन्म ले चुकी है, लेकिन वह इतना जरूर जानती है कि इस गांव का मेहदी हसन गजल सम्राट है। जिन लोगों ने मेहदी हसन को नहीं देखा, वे भी उन्हें प्यार और सम्मान करते है। शायद ऐसे ही वक्त के लिए मेंहदी हसन ने यह गजल गाई है-''मौहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।' लगभग 250 घरों के लूणा गांव में आज भी कोई कार जैसी चीज चली जाए तो लोगों को यह समझते देर नहीं लगती कि मसला मेहदी हसन के साथ जुड़ा है। मेहदी हसन की वजह से ही लूणा को एक सड़क उपहार में मिल गई है जो गांव तक जाती है। हमारी गाड़ी जैसे ही गांव में पहुंचती है तो एक ग्रामीण सांवरा छूटते ही बताता है कि मेहदी हसन के बारे में जानना है तो नारायण सिंह के पास चले जाओ। वही सब कुछ बता सकता है।
दरअसल, लूणा में मेहदी हसन का अब एक ही साथी बचा है- नारायण सिंह। मेहदी हसन के एक दोस्त और हैं- अर्जुन सिंह, लेकिन वे विक्षिप्त हो चुके हैं और उन्हें कोई सुधबुध नहीं है। गांव का एक रिटायर्ड फौजी रामेश्वर लाल बताता है- ''मेहदी हसन मेरे पिताजी (मालाराम) के अच्छे दोस्त थे। उनके साथ गांव में कबड्डी खेलते थे, अखाड़े में कुश्ती करते थे। मेरे पिताजी के साथ उनकी फोटो भी थी, लेकिन अब वह भी नहीं रहे।' गांव में लोगों से बातचीत में ही यह पता चलता है कि अपने सुरों से दुनिया में राज करने वाले मेहदी हसन पहलवानी भी करते थे।
शाम के झुरमुट में हम गांव की गलियों से गुजरते हैं। गांव के छान-छप्परों से धुआं उठ रहा था। लगा हवा में लहराते दरख्त मेहदी हसन की गजल गुनगुना उठे हों- ''ये धुआं सा कहां से उठता है, देख तो दिल कि जां से उठता हैं ' कुओं पर बीते वक्त की वास्तु के पनघट बने हैं। इन पर चकली की जगह लकड़ी के बड़े चक्के लगे हैं जिन पर कभी चरस से पानी खींचा जाता होगा। एक सरकारी स्कूल के परिसर में ही पिछवाड़े एक मजार है। यह मेहदी हसन के दादा इमाम खां की मजार है, जो शास्त्रीय संगीत के अच्छे ज्ञाता माने जाते थे। उन्हीं से मेहदी हसन ने गायन सीखा। मजार पर पहले कुछ नहीं था। एक ग्रामीण युवक मुकुट सिंह ने बताया कि कोई एक दशक पहले मेहदी हसन निजी यात्रा पर इस मजार को ठीक कराने के लिए ही आए थे। तब वे झुंझुनूं से अपने साथ दो कारीगर लेकर आए थे, जिनसे मजार पर कुछ निर्माण कराया। मेहदी हसन की इस यात्रा के पीछे छिपे उनके दर्द को महसूस किया जा सकता है। अपनी जमीन से उखड़ जाने पर पीछे छूटी यादें किसी यातना से कम नहीं होती। मजार की बदहाली देखकर रोना आता है। मजार अब भी उतनी ही वीरान और सन्नाटे से भरी है, जितना उसके पास खड़ा एक सूखा दरख्त। यह मजार ही जैसे मेहदी हसन को लूणा बुलाती रहती है। मानो रेत के धोरों में हवा गुनगुनाने लगती है- '' भूली बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फसाने याद आए, तुम याद आए और तुम्हारे साथ जमाने याद आए।'' नारायण सिंह कभी-कभी जुम्मे पर इस मजार पर हो आते हैं।
नारायण सिंह अपने बेटों-पोतों के साथ ही कई घरों के बीच बनी एक कोठरी में रहते हैं, लेकिन भगवा वस्त्रों में। दस साल पहले अपनी पत्नी के निधन के बाद उन्होंने संन्यास ले लिया। कोठरी में एक तानपुरा भी रखा है। उन्होंने बताया कि मेहदी हसन के दादा इमाम खां से उन्होंने भी संगीत की तालीम पाई। आध्यात्मिक संगीत में उनकी रूचि है, लेकिन गजलें उन्हें नहीं आती। मेहदी हसन की भी कोई गजल उनको याद नहीं। वे कहते हैं- ''मेहदी हसन ने शास्त्रीय रागों से गजल को जोड़ा, इसलिए वे प्रसिद्ध हुए।'' नारायण सिंह दिनभर अपनी पुरानी किताबों की जिल्द बनाकर सिलाई करते रहते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें कुरान भी आती है। उन्होंने रामचरित मानस के उर्दू अनुवाद की एक दुर्लभ पुस्तक भी दिखाई।
लूणा गांव में लगभग 8 वर्ष की उम्र में ही मेहदी हसन ने ठुमरी, खयाल और दादरा में गायकी सीख ली थी। अपने पिता उस्ताद अजीम खां से भी उन्होंने शास्त्रीय गायन की तालीम ली। रेत के धोरों में संगीत की स्वर लहरियां जैसे आज भी मेहदी हसन को सुनाई देती हैं और वे इस धरती पर खिंच कर चले आते हैं।
गांव में किसी से भी पूछो कि मेहदी हसन के पुराने घर कहां हैं, तो लोग सकुचाने लगते हैं। ज्यादातर लोग जुबान सिल लेते हैं। लगता है जैसे कोई गलत बात पूछ ली हो। एक ग्रामीण रामेश्वर दबे स्वरों में बताता है-'' जहां मेहदी हसन के कच्चे घर थे, वहां अब भागीरथ मीणा की पक्की कोठी है। ऐसी कोठी पूरे गांव में नहीं है। मीणा एक सरकारी अधिकारी हैं जो बाहर रहते हैं।''
पूरे गांव में बहती फिजां में मेहदी हसन की मौजूदगी का अहसास लगातार बना रहता है, लेकिन उनकी पुरानी यादों के ज्यादा पन्ने अब खुल कर सामने नहीं आते। उनके साथी नारायण सिंह के जेहन में भी बचपन की ज्यादा यादें बची नहीं हैं। वे अपनी उम्र 90 वर्ष बताते हैं, हालांकि इतनी उम्र के लगते नहीं हैं। कहते हैं- ''मेहदी हसन के पिता अजीम खां मंडावा के ठाकुर के यहां दरबारी गायक थे जिन्हें गाने के बदले ठाकुर साहब से जमीन भी मिलती थी। चाचा इस्माइल खां पहलवान थे, जिनके अखाड़े में मेहदी हसन और उनके बड़े भाई गुलाम कादिर के साथ मैं भी जाता था। मेहदी हसन की दो बहनें थीं- रहमी और भूरी।''
मेहदी हसन जब भी लूणा गांव आते हैं, वे नारायण सिंह से जरूर मिलते हैं। वे दो बार सरकारी मेहमान बन कर भी आ चुके हैं। लूणा इस बार फिर उनके आने की प्रतीक्षा कर रहा है। हैरत की बात यह है कि लूणा को लेकर मेहदी हसन के दिल में आज भी जुनून कम नहीं हुआ है। समय की परतें भी इसे दबा नहीं पाई हैं। तानसेन के बारे कहा जाता है कि लोग उनकी मजार पर जाते हैं तो कान के पीछे हाथ लगाकर सुनने की कोशिश करते हैं- क्या पता कब उनके सुर फूट पड़े। लूणा गांव भी उनके आने की आहटों को कुछ इसी तरह सुनता रहता है। इस बार जब वे लूणा गांव आकर वापस लौटेंगे तो कौन जाने उनके मन में अपनी ही गजल के ये स्वर गूंज रहे होंगे-'' अब के हम बिछुड़े तो शायद ख्वाबों में मिलें, जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।''
आवाजों को सरहदों के पार जाने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए राजस्थान के लूणा गांव की आवाज रेत के धोरों में बहती हुई पाकिस्तान में मेहदी हसन तक पहुंच जाती है और वे यहां आने के लिए छटपटाने लगते हैं। पाकिस्तान से खबर है कि अस्वस्थ होने के बावजूद वे एक बार फिर अपनी जन्म भूमि पर आना चाहते हैं।
राजस्थान के शेखावाटी अंचल में झुंझुनूं जिले के लूणा गांव की हवा में आज भी मेहदी हसन की खुशबू तैरती है। देश विभाजन के बाद लगभग 20 वर्ष की उम्र में वे लूणा गांव से उखड़ कर पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन इस गांव की यादें आज तक उनका पीछा करती हैं। वक्त के साथ उनके ज्यादातर संगी-साथी भी अब इस दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन गांव के दरख्तों, कुओं की मुंडेरों और खेतों में उनकी महक आज भी महसूस की जा सकती है।
छूटी हुई जन्म स्थली की मिट्टी से किसी इंसान को कितना प्यार हो सकता है इसे 1977 के उन दिनों में झांक कर देखा जा सकता है जब मेहदी हसन पाकिस्तान जाने के बाद पहली बार लूणा आए और यहां की मिट्टी में लोट-पोट हो कर रोने लगे। उस समय जयपुर में गजलों के एक कार्यक्रम के लिए वे सरकारी मेहमान बन कर जयपुर आए थे और उनकी इच्छा पर उन्हें लूणा गांव ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर बढ़ रहा था तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रूकवा दी। काफिला थम गया। सड़क किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर था, जहां रेत में लोटपोट हो कर वे पलटियां खाने लगे और रोना शुरू कर दिया। कोई सोच नहीं सकता था कि धरती माता से ऐसे मिला जा सकता है। ऐसा लग रहा था जैसे वे मां की गोद में लिपटकर रो रहे हों।
इस दृश्य के गवाह रहे कवि कृष्ण कल्पित बताते हैं-' वह भावुक कर देने वाला अद्भूत दृश्य था। मेहदी हसन का बेटा भी उस समय उनके साथ था। वह घबरा गया कि वालिद साहब को यह क्या हो गया? हमने उनसे कहा कि धैर्य रखें, कुछ नहीं होगा। धीरे-धीरे वह शांत हो गए। बाद में उन्होंने बताया कि यहां बैठ कर वे भजन गया करते थे।' मेहदी हसन ने तब यह भी बताया था कि पाकिस्तान में अब भी उनके परिवार में सब लोग शेखावाटी में बोलते हैं। शेखावाटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती है।
मेहदी हसन के साथ इस यात्रा में आए उनके बेटे आसिफ मेहदी भी अब पाकिस्तान में गजल गाते हैं और बाप-बेटे का एक साझा अलबम भी है-''दिल जो रोता है' ।
मेहदी हसन जब पहली बार लूणा आए तो पूरे गांव में हल्ला मच गया था-' मेंहद्यो आयो है, मेंहद्यो आयो है। ' मेहदी हसन जहां जाते, लोग उनका छाछ-राबड़ी और दूध-दही से स्वागत करते। इस यात्रा में झुंझुनूं में जिला कलेक्टर ने उनके सम्मान में रात्रि भोज दिया था, लेकिन मेहदी हसन बिना बताए झुंझुनूं की एक बस्ती में अपने रिश्ते की एक बहन के घर पहुंच गए और वहां मांग कर लहसन की चटनी के साथ बाजरे की रोटी खाई। प्रशासनिक अधिकारी उन्हें ढूंढते रहे।
इस बार जब मेहदी हसन अपने गांव आएंगे तो शायद यह कहने वाला कोई नहीं मिलेगा कि 'मेंहद्यो आयो है।' गांव में अब एक नई पीढ़ी जन्म ले चुकी है, लेकिन वह इतना जरूर जानती है कि इस गांव का मेहदी हसन गजल सम्राट है। जिन लोगों ने मेहदी हसन को नहीं देखा, वे भी उन्हें प्यार और सम्मान करते है। शायद ऐसे ही वक्त के लिए मेंहदी हसन ने यह गजल गाई है-''मौहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।' लगभग 250 घरों के लूणा गांव में आज भी कोई कार जैसी चीज चली जाए तो लोगों को यह समझते देर नहीं लगती कि मसला मेहदी हसन के साथ जुड़ा है। मेहदी हसन की वजह से ही लूणा को एक सड़क उपहार में मिल गई है जो गांव तक जाती है। हमारी गाड़ी जैसे ही गांव में पहुंचती है तो एक ग्रामीण सांवरा छूटते ही बताता है कि मेहदी हसन के बारे में जानना है तो नारायण सिंह के पास चले जाओ। वही सब कुछ बता सकता है।
दरअसल, लूणा में मेहदी हसन का अब एक ही साथी बचा है- नारायण सिंह। मेहदी हसन के एक दोस्त और हैं- अर्जुन सिंह, लेकिन वे विक्षिप्त हो चुके हैं और उन्हें कोई सुधबुध नहीं है। गांव का एक रिटायर्ड फौजी रामेश्वर लाल बताता है- ''मेहदी हसन मेरे पिताजी (मालाराम) के अच्छे दोस्त थे। उनके साथ गांव में कबड्डी खेलते थे, अखाड़े में कुश्ती करते थे। मेरे पिताजी के साथ उनकी फोटो भी थी, लेकिन अब वह भी नहीं रहे।' गांव में लोगों से बातचीत में ही यह पता चलता है कि अपने सुरों से दुनिया में राज करने वाले मेहदी हसन पहलवानी भी करते थे।
शाम के झुरमुट में हम गांव की गलियों से गुजरते हैं। गांव के छान-छप्परों से धुआं उठ रहा था। लगा हवा में लहराते दरख्त मेहदी हसन की गजल गुनगुना उठे हों- ''ये धुआं सा कहां से उठता है, देख तो दिल कि जां से उठता हैं ' कुओं पर बीते वक्त की वास्तु के पनघट बने हैं। इन पर चकली की जगह लकड़ी के बड़े चक्के लगे हैं जिन पर कभी चरस से पानी खींचा जाता होगा। एक सरकारी स्कूल के परिसर में ही पिछवाड़े एक मजार है। यह मेहदी हसन के दादा इमाम खां की मजार है, जो शास्त्रीय संगीत के अच्छे ज्ञाता माने जाते थे। उन्हीं से मेहदी हसन ने गायन सीखा। मजार पर पहले कुछ नहीं था। एक ग्रामीण युवक मुकुट सिंह ने बताया कि कोई एक दशक पहले मेहदी हसन निजी यात्रा पर इस मजार को ठीक कराने के लिए ही आए थे। तब वे झुंझुनूं से अपने साथ दो कारीगर लेकर आए थे, जिनसे मजार पर कुछ निर्माण कराया। मेहदी हसन की इस यात्रा के पीछे छिपे उनके दर्द को महसूस किया जा सकता है। अपनी जमीन से उखड़ जाने पर पीछे छूटी यादें किसी यातना से कम नहीं होती। मजार की बदहाली देखकर रोना आता है। मजार अब भी उतनी ही वीरान और सन्नाटे से भरी है, जितना उसके पास खड़ा एक सूखा दरख्त। यह मजार ही जैसे मेहदी हसन को लूणा बुलाती रहती है। मानो रेत के धोरों में हवा गुनगुनाने लगती है- '' भूली बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फसाने याद आए, तुम याद आए और तुम्हारे साथ जमाने याद आए।'' नारायण सिंह कभी-कभी जुम्मे पर इस मजार पर हो आते हैं।
नारायण सिंह अपने बेटों-पोतों के साथ ही कई घरों के बीच बनी एक कोठरी में रहते हैं, लेकिन भगवा वस्त्रों में। दस साल पहले अपनी पत्नी के निधन के बाद उन्होंने संन्यास ले लिया। कोठरी में एक तानपुरा भी रखा है। उन्होंने बताया कि मेहदी हसन के दादा इमाम खां से उन्होंने भी संगीत की तालीम पाई। आध्यात्मिक संगीत में उनकी रूचि है, लेकिन गजलें उन्हें नहीं आती। मेहदी हसन की भी कोई गजल उनको याद नहीं। वे कहते हैं- ''मेहदी हसन ने शास्त्रीय रागों से गजल को जोड़ा, इसलिए वे प्रसिद्ध हुए।'' नारायण सिंह दिनभर अपनी पुरानी किताबों की जिल्द बनाकर सिलाई करते रहते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें कुरान भी आती है। उन्होंने रामचरित मानस के उर्दू अनुवाद की एक दुर्लभ पुस्तक भी दिखाई।
लूणा गांव में लगभग 8 वर्ष की उम्र में ही मेहदी हसन ने ठुमरी, खयाल और दादरा में गायकी सीख ली थी। अपने पिता उस्ताद अजीम खां से भी उन्होंने शास्त्रीय गायन की तालीम ली। रेत के धोरों में संगीत की स्वर लहरियां जैसे आज भी मेहदी हसन को सुनाई देती हैं और वे इस धरती पर खिंच कर चले आते हैं।
गांव में किसी से भी पूछो कि मेहदी हसन के पुराने घर कहां हैं, तो लोग सकुचाने लगते हैं। ज्यादातर लोग जुबान सिल लेते हैं। लगता है जैसे कोई गलत बात पूछ ली हो। एक ग्रामीण रामेश्वर दबे स्वरों में बताता है-'' जहां मेहदी हसन के कच्चे घर थे, वहां अब भागीरथ मीणा की पक्की कोठी है। ऐसी कोठी पूरे गांव में नहीं है। मीणा एक सरकारी अधिकारी हैं जो बाहर रहते हैं।''
पूरे गांव में बहती फिजां में मेहदी हसन की मौजूदगी का अहसास लगातार बना रहता है, लेकिन उनकी पुरानी यादों के ज्यादा पन्ने अब खुल कर सामने नहीं आते। उनके साथी नारायण सिंह के जेहन में भी बचपन की ज्यादा यादें बची नहीं हैं। वे अपनी उम्र 90 वर्ष बताते हैं, हालांकि इतनी उम्र के लगते नहीं हैं। कहते हैं- ''मेहदी हसन के पिता अजीम खां मंडावा के ठाकुर के यहां दरबारी गायक थे जिन्हें गाने के बदले ठाकुर साहब से जमीन भी मिलती थी। चाचा इस्माइल खां पहलवान थे, जिनके अखाड़े में मेहदी हसन और उनके बड़े भाई गुलाम कादिर के साथ मैं भी जाता था। मेहदी हसन की दो बहनें थीं- रहमी और भूरी।''
मेहदी हसन जब भी लूणा गांव आते हैं, वे नारायण सिंह से जरूर मिलते हैं। वे दो बार सरकारी मेहमान बन कर भी आ चुके हैं। लूणा इस बार फिर उनके आने की प्रतीक्षा कर रहा है। हैरत की बात यह है कि लूणा को लेकर मेहदी हसन के दिल में आज भी जुनून कम नहीं हुआ है। समय की परतें भी इसे दबा नहीं पाई हैं। तानसेन के बारे कहा जाता है कि लोग उनकी मजार पर जाते हैं तो कान के पीछे हाथ लगाकर सुनने की कोशिश करते हैं- क्या पता कब उनके सुर फूट पड़े। लूणा गांव भी उनके आने की आहटों को कुछ इसी तरह सुनता रहता है। इस बार जब वे लूणा गांव आकर वापस लौटेंगे तो कौन जाने उनके मन में अपनी ही गजल के ये स्वर गूंज रहे होंगे-'' अब के हम बिछुड़े तो शायद ख्वाबों में मिलें, जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।''