Wednesday, July 23, 2014

सरहद पार से आती हैं सदाएं - ईशमधु तलवार

आउटलुक के अप्रेल अंक में मेहदी हसन पर मेरा लेख फोटो सेक्शन में है, जो कि संपादित है , उसे मूल रूप में यहां पढें-
29 March 2010 at 20:07



आवाजों को सरहदों के पार जाने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए राजस्थान के लूणा गांव की आवाज रेत के धोरों में बहती हुई पाकिस्तान में मेहदी हसन तक पहुंच जाती है और वे यहां आने के लिए छटपटाने लगते हैं। पाकिस्तान से खबर है कि अस्वस्थ होने के बावजूद वे एक बार फिर अपनी जन्म भूमि पर आना चाहते हैं।
राजस्थान के शेखावाटी अंचल में झुंझुनूं जिले के लूणा गांव की हवा में आज भी मेहदी हसन की खुशबू तैरती है। देश विभाजन के बाद लगभग 20 वर्ष की उम्र में वे लूणा गांव से उखड़ कर पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन इस गांव की यादें आज तक उनका पीछा करती हैं। वक्त के साथ उनके ज्यादातर संगी-साथी भी अब इस दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन गांव के दरख्तों, कुओं की मुंडेरों और खेतों में उनकी महक आज भी महसूस की जा सकती है।

छूटी हुई जन्म स्थली की मिट्टी से किसी इंसान को कितना प्यार हो सकता है इसे 1977 के उन दिनों में झांक कर देखा जा सकता है जब मेहदी हसन पाकिस्तान जाने के बाद पहली बार लूणा आए और यहां की मिट्टी में लोट-पोट हो कर रोने लगे। उस समय जयपुर में गजलों के एक कार्यक्रम के लिए वे सरकारी मेहमान बन कर जयपुर आए थे और उनकी इच्छा पर उन्हें लूणा गांव ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर बढ़ रहा था तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रूकवा दी। काफिला थम गया। सड़क किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर था, जहां रेत में लोटपोट हो कर वे पलटियां खाने लगे और रोना शुरू कर दिया। कोई सोच नहीं सकता था कि धरती माता से ऐसे मिला जा सकता है। ऐसा लग रहा था जैसे वे मां की गोद में लिपटकर रो रहे हों।

इस दृश्य के गवाह रहे कवि कृष्ण कल्पित बताते हैं-' वह भावुक कर देने वाला अद्भूत दृश्य था। मेहदी हसन का बेटा भी उस समय उनके साथ था। वह घबरा गया कि वालिद साहब को यह क्या हो गया? हमने उनसे कहा कि धैर्य रखें, कुछ नहीं होगा। धीरे-धीरे वह शांत हो गए। बाद में उन्होंने बताया कि यहां बैठ कर वे भजन गया करते थे।' मेहदी हसन ने तब यह भी बताया था कि पाकिस्तान में अब भी उनके परिवार में सब लोग शेखावाटी में बोलते हैं। शेखावाटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती है।

मेहदी हसन के साथ इस यात्रा में आए उनके बेटे आसिफ मेहदी भी अब पाकिस्तान में गजल गाते हैं और बाप-बेटे का एक साझा अलबम भी है-''दिल जो रोता है' ।
मेहदी हसन जब पहली बार लूणा आए तो पूरे गांव में हल्ला मच गया था-' मेंहद्यो आयो है, मेंहद्यो आयो है। ' मेहदी हसन जहां जाते, लोग उनका छाछ-राबड़ी और दूध-दही से स्वागत करते। इस यात्रा में झुंझुनूं में जिला कलेक्टर ने उनके सम्मान में रात्रि भोज दिया था, लेकिन मेहदी हसन बिना बताए झुंझुनूं की एक बस्ती में अपने रिश्ते की एक बहन के घर पहुंच गए और वहां मांग कर लहसन की चटनी के साथ बाजरे की रोटी खाई। प्रशासनिक अधिकारी उन्हें ढूंढते रहे।

इस बार जब मेहदी हसन अपने गांव आएंगे तो शायद यह कहने वाला कोई नहीं मिलेगा कि 'मेंहद्यो आयो है।' गांव में अब एक नई पीढ़ी जन्म ले चुकी है, लेकिन वह इतना जरूर जानती है कि इस गांव का मेहदी हसन गजल सम्राट है। जिन लोगों ने मेहदी हसन को नहीं देखा, वे भी उन्हें प्यार और सम्मान करते है। शायद ऐसे ही वक्त के लिए मेंहदी हसन ने यह गजल गाई है-''मौहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।' लगभग 250 घरों के लूणा गांव में आज भी कोई कार जैसी चीज चली जाए तो लोगों को यह समझते देर नहीं लगती कि मसला मेहदी हसन के साथ जुड़ा है। मेहदी हसन की वजह से ही लूणा को एक सड़क उपहार में मिल गई है जो गांव तक जाती है। हमारी गाड़ी जैसे ही गांव में पहुंचती है तो एक ग्रामीण सांवरा छूटते ही बताता है कि मेहदी हसन के बारे में जानना है तो नारायण सिंह के पास चले जाओ। वही सब कुछ बता सकता है।

दरअसल, लूणा में मेहदी हसन का अब एक ही साथी बचा है- नारायण सिंह। मेहदी हसन के एक दोस्त और हैं- अर्जुन सिंह, लेकिन वे विक्षिप्त हो चुके हैं और उन्हें कोई सुधबुध नहीं है। गांव का एक रिटायर्ड फौजी रामेश्वर लाल बताता है- ''मेहदी हसन मेरे पिताजी (मालाराम) के अच्छे दोस्त थे। उनके साथ गांव में कबड्डी खेलते थे, अखाड़े में कुश्ती करते थे। मेरे पिताजी के साथ उनकी फोटो भी थी, लेकिन अब वह भी नहीं रहे।' गांव में लोगों से बातचीत में ही यह पता चलता है कि अपने सुरों से दुनिया में राज करने वाले मेहदी हसन पहलवानी भी करते थे।

शाम के झुरमुट में हम गांव की गलियों से गुजरते हैं। गांव के छान-छप्परों से धुआं उठ रहा था। लगा हवा में लहराते दरख्त मेहदी हसन की गजल गुनगुना उठे हों- ''ये धुआं सा कहां से उठता है, देख तो दिल कि जां से उठता हैं ' कुओं पर बीते वक्त की वास्तु के पनघट बने हैं। इन पर चकली की जगह लकड़ी के बड़े चक्के लगे हैं जिन पर कभी चरस से पानी खींचा जाता होगा। एक सरकारी स्कूल के परिसर में ही पिछवाड़े एक मजार है। यह मेहदी हसन के दादा इमाम खां की मजार है, जो शास्त्रीय संगीत के अच्छे ज्ञाता माने जाते थे। उन्हीं से मेहदी हसन ने गायन सीखा। मजार पर पहले कुछ नहीं था। एक ग्रामीण युवक मुकुट सिंह ने बताया कि कोई एक दशक पहले मेहदी हसन निजी यात्रा पर इस मजार को ठीक कराने के लिए ही आए थे। तब वे झुंझुनूं से अपने साथ दो कारीगर लेकर आए थे, जिनसे मजार पर कुछ निर्माण कराया। मेहदी हसन की इस यात्रा के पीछे छिपे उनके दर्द को महसूस किया जा सकता है। अपनी जमीन से उखड़ जाने पर पीछे छूटी यादें किसी यातना से कम नहीं होती। मजार की बदहाली देखकर रोना आता है। मजार अब भी उतनी ही वीरान और सन्नाटे से भरी है, जितना उसके पास खड़ा एक सूखा दरख्त। यह मजार ही जैसे मेहदी हसन को लूणा बुलाती रहती है। मानो रेत के धोरों में हवा गुनगुनाने लगती है- '' भूली बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फसाने याद आए, तुम याद आए और तुम्हारे साथ जमाने याद आए।'' नारायण सिंह कभी-कभी जुम्मे पर इस मजार पर हो आते हैं।

नारायण सिंह अपने बेटों-पोतों के साथ ही कई घरों के बीच बनी एक कोठरी में रहते हैं, लेकिन भगवा वस्त्रों में। दस साल पहले अपनी पत्नी के निधन के बाद उन्होंने संन्यास ले लिया। कोठरी में एक तानपुरा भी रखा है। उन्होंने बताया कि मेहदी हसन के दादा इमाम खां से उन्होंने भी संगीत की तालीम पाई। आध्यात्मिक संगीत में उनकी रूचि है, लेकिन गजलें उन्हें नहीं आती। मेहदी हसन की भी कोई गजल उनको याद नहीं। वे कहते हैं- ''मेहदी हसन ने शास्त्रीय रागों से गजल को जोड़ा, इसलिए वे प्रसिद्ध हुए।'' नारायण सिंह दिनभर अपनी पुरानी किताबों की जिल्द बनाकर सिलाई करते रहते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें कुरान भी आती है। उन्होंने रामचरित मानस के उर्दू अनुवाद की एक दुर्लभ पुस्तक भी दिखाई।

लूणा गांव में लगभग 8 वर्ष की उम्र में ही मेहदी हसन ने ठुमरी, खयाल और दादरा में गायकी सीख ली थी। अपने पिता उस्ताद अजीम खां से भी उन्होंने शास्त्रीय गायन की तालीम ली। रेत के धोरों में संगीत की स्वर लहरियां जैसे आज भी मेहदी हसन को सुनाई देती हैं और वे इस धरती पर खिंच कर चले आते हैं।

गांव में किसी से भी पूछो कि मेहदी हसन के पुराने घर कहां हैं, तो लोग सकुचाने लगते हैं। ज्यादातर लोग जुबान सिल लेते हैं। लगता है जैसे कोई गलत बात पूछ ली हो। एक ग्रामीण रामेश्वर दबे स्वरों में बताता है-'' जहां मेहदी हसन के कच्चे घर थे, वहां अब भागीरथ मीणा की पक्की कोठी है। ऐसी कोठी पूरे गांव में नहीं है। मीणा एक सरकारी अधिकारी हैं जो बाहर रहते हैं।''

पूरे गांव में बहती फिजां में मेहदी हसन की मौजूदगी का अहसास लगातार बना रहता है, लेकिन उनकी पुरानी यादों के ज्यादा पन्ने अब खुल कर सामने नहीं आते। उनके साथी नारायण सिंह के जेहन में भी बचपन की ज्यादा यादें बची नहीं हैं। वे अपनी उम्र 90 वर्ष बताते हैं, हालांकि इतनी उम्र के लगते नहीं हैं। कहते हैं- ''मेहदी हसन के पिता अजीम खां मंडावा के ठाकुर के यहां दरबारी गायक थे जिन्हें गाने के बदले ठाकुर साहब से जमीन भी मिलती थी। चाचा इस्माइल खां पहलवान थे, जिनके अखाड़े में मेहदी हसन और उनके बड़े भाई गुलाम कादिर के साथ मैं भी जाता था। मेहदी हसन की दो बहनें थीं- रहमी और भूरी।''

मेहदी हसन जब भी लूणा गांव आते हैं, वे नारायण सिंह से जरूर मिलते हैं। वे दो बार सरकारी मेहमान बन कर भी आ चुके हैं। लूणा इस बार फिर उनके आने की प्रतीक्षा कर रहा है। हैरत की बात यह है कि लूणा को लेकर मेहदी हसन के दिल में आज भी जुनून कम नहीं हुआ है। समय की परतें भी इसे दबा नहीं पाई हैं। तानसेन के बारे कहा जाता है कि लोग उनकी मजार पर जाते हैं तो कान के पीछे हाथ लगाकर सुनने की कोशिश करते हैं- क्या पता कब उनके सुर फूट पड़े। लूणा गांव भी उनके आने की आहटों को कुछ इसी तरह सुनता रहता है। इस बार जब वे लूणा गांव आकर वापस लौटेंगे तो कौन जाने उनके मन में अपनी ही गजल के ये स्वर गूंज रहे होंगे-'' अब के हम बिछुड़े तो शायद ख्वाबों में मिलें, जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।''

Sunday, July 20, 2014

The DDLJ myth revisited-santosh desai

As we see yet another film (Humpty Sharma Ki Dulhania) that explicitly acknowledges its influence, it is time to ask what is it about Dilwale Dulhania Le Jayenge that makes it so powerfully resonant with so many people over such a long time? It is a perplexing question, for the film was made in 1995, in the early days of economic liberalisation and so much has changed since. Just to refresh our memories, 1995 was the year in which Enron was scrapped, Amitabh Bachchan Corporation was formed and Madhu Sapre and Milind Soman had shared a python between them. Shah Rukh Khan’s other films for the year included timeless classics such as Zamaana Deewana, Guddu and Ram Jaane. It was a different time for India, and even more so for Hindi cinema. Cinematically, DDLJ broke some new ground- but the durability of its appeal can hardly be located there. It touched a deeper chord by articulating a societal fault line in a way that was both precise and real. Another film, Hum Aapke Hain Kaun, too has had a great impact since its release in 1994 but today it is seems to be a dated product of its times.
It was easy to understand what made the film work then. It brilliantly articulated an anxiety that existed about all the changes being unleashed on India. It depicted the battle between the past and the present, and between collective custom and individual desire, in the form of a love story between two endearing characters. It served up a cinematic version of tradition and mellowed out modernity till one could barely tell the difference between the two. It offered a comforting resolution to a complex question and quietened the misgivings that had risen about social change.
Unlike most Hindi films, where the pleasure lies in the telling of the tale rather than its resolution, for that is almost always a return to the familiar, in DDLJ, it was the resolution that was new. The star-crossed lovers did not fight the world nor did they succumb to bullets/stabs in slow motion, but submitted to the authority of the older generation after making a strong moral case. The reconciliation went beyond the surface- the past and the present agreed to fuse together, the cultural continuity that was forged seemed deep and real.
The power of DDLJ becomes clearer when we examine the latest tribute that has been offered to it in the form of Humpty Sharma Ki Dulhania. Humpty Sharma Ki Dulhaniya, it must be said is a pleasant film, but it is unlikely to become a classic partly because it does not take itself too seriously. It is in its lack of pretension that the film becomes significant, for in the world that it depicts tentativeness abounds. Compromised tradition meets ritualised modernity, and instead of a grand reconciliation we have a workable negotiation. The forces of the past lack the moral certitude of an Amrish Puri in DDLJ and the customary rituals of the wedding too lack any real self-belief. What remains of tradition is the memory of authority, rooted in patriarchal habit. But modernity too is its mirror, for it seems adrift in the fragmented rituals that come detached from any larger meaning. The heroine outdrinks the hero, she covets a designer wedding dress and he a car, and the two sleep together even though she is engaged to someone else. It is striking that even the act of sleeping together is handled matter-of-factly. Many reviews have read this as a sign of the growing maturity of cinema- another reading is that even this action, unusual in the Indian social context, is divested of any radical meaning. It is merely a ritual of the times, like the tequila shot.
The romance is bedecked with question marks, and even the answers are not assertions but hopeful hypotheses. This is a world where parents posture, and imperfect young people huddle together with hope rather than conviction. Things change, in that certitudes crumble bit by bit, and opposites do not abrade each other quite as much. The genius of DDLJ was that it made the present rescue the past, giving strength to the former by granting honourable legitimacy to the latter. Good tradition morphed into respectful modernity-Shah Rukh Khan earned the baton from Amrish Puri. Modernity submitted to the test of tradition and came through. In Humpty Sharma, both sides are imagined to be imperfect, and the resolution happens when the quest for perfection is abandoned. The past makes a conditional settlement with the present on a case-by-case basis. What continues is that authority continues to be vested in masculine power; the conversation is still between men.
Today, the idea that the old and new will get neatly resolved is nothing but a fantasy. The years that have passed since DDLJ have told us that the past is in no hurry to retire and the present lacks the idealism and confidence to assert itself. The best case scenario today seems to be to make conditional peace with the past. We crave for the illusion that DDLJ provides precisely because it gave us an answer that seemed to be so final, besides it had Shah Rukh Khan who had just learnt how to fling out his arms and smile at the world. Raj is the hero India needs for he has all the answers but Humpty Sharma is the one we will have to make do with. The quest for grand and absolute solutions may need to give way to those that offer more modest and context-sensitive answers. Imperfectness may not be such a bad thing, for then we need each other to cobble together some form of completeness.

Thursday, July 10, 2014

Anurag Kashyap Explains His Stand – On Rape, Feminism, His Short Film and more


Posted: July 7, 2014 by moifightclub in Guest Post, News
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Dear All,
When I am not making movies – which is thankfully rarely – my favourite pastime is to get fundamentally quoted without the context. Blame the lack of space in newspapers today with all those advertisements accounting for most of it. It helps to keep our conversation going, you see. And it has happened again. My whole conversation has been reduced to one line that’s being knocked around, “rape is a bad accident says anurag kashyap”
Fun though it is, I think it’s time I speak for myself and not let some out-of-context quote in a paper, or an edited version of a half-an-hour conversation do the talking.
Sitting here in Karlovy Vary I have been inundated with texts and mails about an interview of mine, that has of course, as always, been completely misread.  It does not help that a long conversation has been reduced to a paragraph, but credit to the writer that he does mention that the now-controversial paragraph is the point of view of a woman and not my own.
The reactions on various social platforms do prove that in anger the opinionists also turn blind, and they actually read what they want to, so that they can rage over it, rather than seeing it and arguing healthily over it.
I don’t mean to spoil the rage party, but let me try to bring some context here.
Recently, I was in conversation with a woman, who quoted an old article she had read in The Times of India oped page, years ago.  That article profiled a courageous rape survivor, a European woman living in India, who after being gang raped, actually fought for a fair trial for her rapists and a lighter sentence. She strongly protested any baying for blood or vengeful mindset. She was in fact ridiculed and vilified for standing up for justice for her own rapists. When asked why she did it – she said that she would treat the trauma of her rape the same way she would treat the trauma of being in a terrible car crash. She would try to heal from it, she would want the irresponsible perpetrators punished, but she would not allow the crime to gain greater significance than she felt it was due. Any greater assignment of meaning to her own rape would be to give in to a male view of the female gender. She also believed that her identity and her dignity did not reside between her legs, but between her ears.
The woman friend of mine who told me about this case, also mentioned that this article made her rethink the concepts of honour, izzat,  dignity and personal identity, for years to come.
What was read as my comment or statement in the HINDU were actually “questions” raised by the survivor, which were then subsequently narrated to me by another woman and by me to Sudhish Kamat who writes it like it is but not all of it, which by now is attributed to me as my quote. Those questions stayed with me and bothered me, and made me question things, because I felt that there was a certain truth to them.
I am not so good at articulation without my camera, but let me try and elucidate the point my female friend was making: No woman invites rape, rape is never ever the woman’s fault, and no woman would chose it – if the choice was a viable one. But in a situation where the choice is between life and rape, a woman might just choose the latter. If her choice is ‘life’, why is that very life taken away from her, once she is raped? Why is she called stuff like ‘zindaa laash’ and why does the entire focus shift to ‘honour’ rather than to ‘healing’? To ‘punishment’ rather than to ‘rehabilitation’? When does the male gaze take over, such that even the extent of the victim’s physical and mental bruising is decided for her by others?
Why is she never granted the quiet she so sorely needs? She is frequently dragged out by the social worker to narrate her story again and again, she relives the trauma again and again, she is used to make a point. should that not be a choice. the choice of the survivor.
The woman who told me this story also said that she often puts a very difficult binary choice to her female friends: Such as: burnt alive, or rape? Dismembered, or rape? Acid attack, or rape? Horrible though it sounds, when given a choice like this, many women went quiet. The horror of rape, when pitted against other ghastly horrors, acquired a perspective. Not that of being ‘fine’ or ‘acceptable’ but often, of the lesser evil – if other brutalities or violence was not involved.
Does this mean any of us is trivializing rape here? Far from it. It is a violent, traumatic, battering, violating experience. All I want to say is that let us not add male notions of honour and purity to it. That is like adding insult to the injury.
The point is about not having a choice. When one is raped, there often is no choice. When one has the option of fight or flight one uses it but often neither option is available. It is the same in a bad accident. You do not have a choice but you go through the brutality .
However, what happens afterward is telling. When in a bad accident, the victim goes to the doctor or a hospital, tries to recuperate, allows oneself to heal, the victim is rehabilitated or allowed to rehabilitate.
And the one who causes the accident is punished.
My distress with our social network-ists is that they assume they understand rape simply because they are women. Rape is not that easily understood and it is not a gender’s prerogative to do so.
In this world men are raped too and more so in our society, in this part of the world. I am also a victim of rape and I have healed a lot more than most because the world was not fussing over me.
Suddenly there is a new term being thrown around, VAW (violence against women) well, coming to VAW, VAW is not the same as rape, VAW includes rape but rape has a much broader bracket that includes the other gender too and also the one we most often don’t consider a gender, the transgenders, who are the biggest victims of the said crime..How I look at Violence? You can’t wish it away, laws will not and can’t control it, it has existed since the mankind has existed, violence against animals, violence against humanity, all kinds of violence exists and will continue to as long as people are not equal. as long as two people will have different strengths and ability, there will always be a power struggle and there will be violence. The weak will always be violated by the strong and it is not gender specific. You can police it. regulate it .. there is violence in sport but is regulated. the perpetrator is always shown a yellow card, then a red card and then is barred from the field and if he/she continues, is banned from the game for life. Only physical assault does not constitute violence, emotional blackmail is also violence, mind games are also violations, misusing nirbhaya laws is also violence and rise in that VIOLENCE AGAINST MEN since those laws have been constituted, was even commented on by the Supreme court just last week. Every solution will create a new problem. anyway i am digressing here..its a never-ending discourse.
If I had to discuss or argue about rape, I would much rather do so with the victims and survivors than with a feminist.Why? Because I get a strong feeling that the Indian feminist is very hard to talk to, because he/she doesn’t listen. He/She has a fully formed opinion etched in stone and will give no space to accommodate any other point of view.
Indian feminists start with the agenda already defined, and hence there is no room for any other opinion or position. Feminists are always eager to adopt any woman with a strong voice as their own. We saw our film “Queen” being immediately adopted by them as a feminist film. Let me say here that neither is Vikas Bahl a feminist, nor am I, and we both love and respect women as we do men: as people, as human beings. Isn’t that the way it should be?

Queen was not intended to be a feminist film, it was the love and respect for this human being and her story that came through, the film was not pro woman or anti men. It was a story of a girl finding her own self and how she does it on her terms.

I know a lot of women who the feminists project as their own and these women hate it, they hate it because they don’t see themselves that way but don’t say it out loud because they are mortally afraid of offending the feminists. The fear that the feminists inculcate even in women is especially peculiar.

Next. coming to my short film – well everything we do is not always a statement. The purpose of the film was not to offer a solution but to tell a story. I made a deal where I was obligated to do a short film for the platform it provided to five other young filmmakers around me who I think deserve more and so that they can showcase what they are capable of.  They made their shorts and the time came to do mine, we were running out of time, I was already late by a month. We were to do a short film and I had two days and the script was chosen from a bunch of scripts and purpose of the film was not to offer a solution. Purpose of the film was to tell a story, and this was the best of the lot, it had its issues but we did not have time to iron out the issues and in that story we tried to shoot it in a way , that one feels the harassmentThe ending was meant to be light hearted. We had no idea that it would go viral and that’s our shortcoming probably, we had no idea that it will be taken as my opinion and even after it was, it helped to bring forth so many points of view – and that wouldn’t have happened if that short did not exist.

I responded to and engaged with some sensible points but the angry, short sighted judgemental ones that came from twitter anger we chose to ignore. I refuse to take the responsibility of making a statement on behalf of a half baked -ism of this country through my work. I am not your voice so please stop expecting me to be, I am on my own journey and constructive points of views help me grow and understand things more, I have been taught not to be afraid to sound like an authority before I speak, I have been taught to speak freely because until and unless you don’t do that, there will not be debates and discussion and arguments.

I am my own voice and I speak for myself, and my life is an ongoing process, I have not come to any conclusions about anything in life, about you or me or cinema or rape or women or anything. I react, I think, I over react, I think too much and I think aloud. I am what I do and not what I am expected to do.

I don’t think I am that important in any scheme of things and I write this letter for the sake of the few people I actually care about, who are distressed, and  who urge me to have my say.
- Anurag Kashyap
(ps – To avoid further misunderstanding, let us clarify that he didn’t send us that profile pic of his to go with this post, we just googled and put one. Because just text looks bit drab)

Tuesday, July 1, 2014

बिमल राय का रचना संसार-मनमोहन चड्ढा





भारतीय सिनेमा के विकास में बंगालीभाषी और मराठीभाषी समाज का विशिष्ट योगदान रहा है। सिनेमा का जन्म सन 1896 में माना जाता है। बंगाल के हीरा लाल सेन सन 1902 से ही फिल्मों के प्रति आकर्षित हो गए थे। उन्होंने कई फिल्मों का आयात किया और इस नए आविष्कार को वे राजा-महाराजाओं के दरबार तक ले गए और वहाँ इन फिल्मों का प्रक्षेपण-प्रदर्शन किया।
सन 1913 में दादा साहब फाल्के ने भारतीय सिनेमा को जमीन प्रदान की और भारतीय सिनेमा के मूक युग का आरंभ हुआ। इस युग के अनेक व्यवसाई फिल्मकारों के साथ-साथ जिन समर्थ फिल्मकारों का नाम लिया जाता है उनमें दो नाम प्रमुख हैं - बाबूराव पेंटर और धीरेंद्रनाथ गांगुली। दोनों ने यथार्थपरक और सार्थक फिल्में बनाईं।
सिनेमा में ध्वनि के आगमन की आहट सुनाई देने से पूर्व ही कलकत्ता का न्यू थिएटर्स आकार ले चुका था और फिल्म उद्योग को नया रंग देने की तैयारी शुरू हो चुकी थी। न्यू थिएटर्स के दो आरंभिक बड़े निर्देशक थे, देवकी बोस और नितिन बोस।
सन 1935 में पच्चीस-छब्बीस वर्ष की आयु में बिमल राय ने न्यू थिएटर्स में नौकरी की शुरुआत की। आरंभ में वे नितिन बोस के सहायक कैमरामैन रहे लेकिन जल्दी ही उन्हें स्वतंत्र कार्यभार सँभालने का अवसर मिल गया। स्वतंत्र छायाकार के तौर पर बिमल राय की पहली फिल्म प्रमथेश नाथ बरुआ द्वारा निर्देशित 'मुक्ति' थी।
सन 1939 में द्वितीय महायुद्ध आरंभ हो गया और कलकत्ता युद्ध की जद में आ गया। सन 1940 से 1945 के बीच के समय में कलकत्ता शहर के नागरिकों ने सिनेमाघरों को अपना आश्रय स्थल बनाया। जहाँ तक फिल्म संबंधी जानकारी का प्रश्न है 'किस्मत' नामक फिल्म (अब कोलकाता) कलकत्ता के सिनेमाघर में तीन वर्ष तक हाउसफुल रही।
यही नहीं 1941-42 में आईं 'कंगन', 'बंधन' और 'झूला' फिल्में भी सुपरहिट रहीं। ऐसा लगता है कि 1940-46 के बीच के समय में भीड़ सिनेमाघरों पर टूट रही थी। उस समय के समाचार पत्रों तथा अन्य उपलब्ध सामग्री के आधार पर उस समय की मानसिकता पर शोध कार्य होना चाहिए। एक ओर भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने अंतिम चरण में था, दूसरी ओर आजाद हिंद फौज के स्वागत की तैयारी थी और तीसरी ओर फिल्मों के प्रति बढ़ता आकर्षण था।
ऐसे समय में सन 1944 में बिमल राय द्वारा निर्देशित प्रथम फिल्म 'उदेर पाथे' प्रदर्शित हुई। कहा जाता है कि इस फिल्म को देखने के लिए अपार जन समूह की उत्सुकता अभूतपूर्व थी। एक वर्ष बाद इसका हिंदी संस्करण 'हमराही' संपूर्ण भारत में प्रदर्शित हुआ।
सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक इकबाल मसूद ने लिखा है, 'मद्रास के स्टार थिएटर में मैंने बिमल राय की 'हमराही' फिल्म देखी। मद्रास में यही एक सिनेमाघर था, जहाँ हिंदी फिल्में दिखाई जाती थी। मैं एक सामान्य व्यावसायिक फिल्म देखने गया था। मैं फिल्म के निर्देशक या फिल्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता था।
'लेकिन फिल्म ने मुझ पर गहरा असर छोड़ा। शायद यह एक समाजवादी फिल्म थी। उन दिनों इंग्लैंड में समाजवाद आ चुका था लेकिन भारत के वामपंथी युवक खुद को अकेला पा रहे थे। सांस्कृतिक स्तर पर सब कहीं घटिया लोकप्रिय कला का बोलबाला था। मुझे आज भी स्मरण है कि'हमराही' ने मुझमें उत्साह का संचार कर दिया था।'
आज के समीक्षक 'हमराही' को रोमांटिक यथार्थवादी फिल्म कहते हैं। उस समय इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग आरंभ नहीं हुआ था। आज की शब्दावली में कहूँ तो 'हमराही' मुझे 'अपने समय से आगे की' या 'भविष्य की फिल्म' लगी थी। दूसरे शब्दों में कहूँ तो, 'जिस प्रकार के समाज में हम जी रहे थे और जिस भविष्य की हम कल्पना करते थे। उसके अनुरूप यह फिल्म थी। हम जवान थे और अच्छा लगता था कि फिल्म में एक लखपति की बेटी एक वामपंथी युवक से प्यार करती है।''
यह लंबा उद्धरण यह भी बताता है कि हमारे यहाँ अच्छी फिल्म समीक्षाओं का हमेशा अकाल रहा है। खोजने पर भी चौथे, पाँचवें या छठे दशक की फिल्मों पर प्रबुद्ध दर्शकों की तात्कालिक या समकालीन टिप्पणियाँ हमें नहीं मिल पातीं। अपनी प्रथम फिल्म से ही बिमल राय समर्थ निर्देशक के रूप में स्थापित हो गए थे।
'हमराही' मूलतः एक शोषक राजेंद्रनाथ तथा एक शोषित अनूप की कथा है। यह पहली हिंदी फिल्म थी, जिसमें शोषक तथा शोषित का द्वंद्व साफ होकर उभरा था। अनूप एक शिक्षित बेरोजगार युवक है और अपनी माँ तथा बहन के साथ रहता है। अनूप की बहन सुमित्रा एक दिन अपनी सहेली गोपा के घर एक खुशी के अवसर पर जाती है। इस पार्टी में धनाढ्य वर्ग के लोग एकत्रित हैं। सुमित्रा पर चोरी करने का आरोप लगा दिया जाता है और वह अपमानित होकर घर लौट आती है।
इधर बेरोजगार अनूप को काम मिल जाता है। उसी का एक लेखक मित्र जो एक पत्रिका का संपादक भी है, अनूप को बताता है कि राजेंद्रनाथ नाम के करोड़पति को एक प्रचार अधिकारी चाहिए। इस प्रचार अधिकारी का काम है, करोड़पति के लिए भाषण तैयार करना। अनूप यह काम स्वीकार कर लेता है। राजेंद्रनाथ को भी अनूप का काम पसंद आता है। अनूप द्वारा लिखे गए भाषणों को सभाओं में सुनाकर राजेंद्रनाथ बहुत लोकप्रिय हो जाता है। एक दिन जब अनूप इस मिल मालिक की लाइब्रेरी में बैठकर अपना काम कर रहा है, उसकी भेंट गोपा से होती है। गोपा, राजेंद्रनाथ की बहन है और सुमित्रा की वही सहेली है जिसने उसे अपने घर पार्टी पर बुलाया था। यह पता लगते ही कि इसी घर में उसकी बहन का अपमान हुआ था, अनूप तुरंत नौकरी छोड देता है।
राजेंद्रनाथ का काम अनूप के बिना चल नहीं पाता। अनूप ने एक उपन्यास भी लिखा है, जिसे वह छपवाना चाहता है। राजेंद्रनाथ अनूप के घर आता है और उससे मित्रता करके उसे अपने साथ ले जाता है। साथ ही वह अनूप द्वारा लिखे गए उपन्यास की पांडुलिपि भी इस आश्वासन के साथ ले जाता है कि शीघ्र ही अनूप के उपन्यास को प्रकाशित करवा देगा। राजेंद्रनाथ की बहन गोपा पांडुलिपि देख लेती है, उसे यूँ ही उलटती पलटती है तथा अनिच्छुक पाठक की तरह पढ़ने लगती है। ज्यों-ज्यों वह उपन्यास को आगे पढ़ती जाती है उपन्यास उसे अपनी लपेट में ले लेता है और वह पूरा उपन्यास पढ़ डालती है। अनूप द्वारा लिखे उपन्यास को पढ़कर गोपा का परिचय जीवन के उस पक्ष से होता है जो अब तक उसके लिए नितांत अपरिचित रहा है। यह उपन्यास मजदूरों की रोजमर्रा जिंदगी तथा पूंजीपतियों द्वारा उनके शोषण के बारे में है। उपन्यास पढ़ लेने के बाद गोपा, गुप्त रूप से मजदूरों की सभाओं में भी जाने लगती है।
इस बीच राजेंद्रनाथ, अनूप का उपन्यास अपने नाम से छपवा लेता है, और उसकी ख्याति एक पूंजीपति तथा एक विचारक लेखक के रूप में फैल जाती है। गोपा अपने भाई के इस कुकृत्य को जान लेने के बाद उससे घृणा करने लगती है। एक दिन जब गोपा घर पर है तब वह राजेंद्रनाथ को टेलीफोन पर बातें करते सुनती है। राजेंद्रनाथ मजदूरों की एक सभा को भंग करने के आदेश दे रहा है। भले ही हिंसा का सहारा क्यों न लेना पड़े। इस सभा में अनूप भाषण दे रहा है। गोपा को सभास्थल पर पहुँचने में थोड़ी देर हो जाती है। राजेंद्रनाथ अपना काम करवा चुका है। सभा बिखर चुकी है। अनूप घायल होकर अचेतावस्था में लहूलुहान पड़ा है।
गोपा के पीछे-पीछे ही राजेंद्रनाथ भी पहुँच जाता है और अपनी बहन को घसीटकर घर ले आता है। गोपा का मजदूरों के प्रति प्रेम तथा अनूप से लगाव जगजाहिर हो जाता है। अगले दिन अखबारों में पूंजीपति की बहन तथा बेटी की मजदूरों से सहानुभूति के समाचार के लंबे विवरण छपते हैं। गोपा का भाई और पिता उसके समझाने का प्रयत्न करते हैं। गोपा के न मानने पर वे उसे एक कमरे में बंद कर देते हैं। इन सब घटनाओं से गोपा का अनूप के साथ रहने का निश्चय दृढ़ होता जाता है। अगले दिन जब अनूप इस शहर को छोड़कर दूसरी जगह जा रहा है तब गोपा भी उसी के साथ चल रही है।
बलराज साहनी ने अपनी फिल्मी आत्मकथा में लिखा है, 'उस जमाने में बंगाल में बिमल राय 'हमराही' बना रहे थे, जिसमें पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति व्यंग्य कूट-कूट कर भरा हुआ था। पर बिमल राय अंत तक यथार्थवाद को निभा पाने में सफल नहीं हो पाए थे। 'हमराही' के हीरो हीरोइन भी, जैसा कि न्यू थिएटर्स की फिल्मों में प्रायः हुआ करता था, अंतिम दृश्य में दूर क्षितिज की ओर जाते हुए दिखाई देते हैं, मानो संसार की समस्याओं का हल किस्मत पर छोड़ दिया गया हो।'
बिमल राय द्वारा निर्देशित अगली फिल्म 'परिणीता' थी। शरतचंद्र चटर्जी के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म में अशोक कुमार तथा मीना कुमारी ने अभिनय किया था। इस फिल्म के संवाद नबेंदू घोष ने लिखे थे। एक बैंक क्लर्क गुरूचरण अपने कई बच्चों के साथ रहता है। उसके ही बच्चों के साथ उसकी भांजी ललिता भी पल रही है। ललिता एक होशियार और सुघड़ लड़की है लेकिन गुरूचरण उसका विवाह करने की चिंता में डूबा रहता है, क्योंकि गुरूचरण का पुश्तैनी मकान उसके पड़ोसी नवीनचंद्र के पास गिरवी पड़ा है। नवीनचंद्र तथा गुरूचरण के परिवार आपस में स्नेह तथा सौहार्द्र के साथ अच्छे पड़ोसियों की तरह रहते हैं। ललिता भी नवीनचंद्र की पत्नी के पास बनी रहती है और घर के काम-काज में भी हाथ बँटा देती है। ललिता का एक काम नवीनचंद्र के पुत्र शेखर के कमरे को ठीक-ठाक रखना भी है। शेखर को वह अपना दोस्त मानती है और वक्त जरूरत उसके बटुए से पैसे भी निकाल लेती है। ललिता का एक अन्य परिवार में यानी मनोरमा के घर भी आना-जाना है। मनोरमा के घर वह खाली समय में ताश खेलने जाती है। मनोरमा का एक भाई है गिरिन। एक दिन मनोरमा का परिवार पिकनिक पर जाने तथा दिन भर घर से बाहर घूमने की योजना बनाता है। जब यह समाचार शेखर को मिलता है तब वह उद्वेलित हो उठता है। शेखर की परेशानी के कारण का पता चलते ही ललिता मनोरमा के परिवार के साथ बाहर जाने से इनकार कर देती है। इन्हीं क्षणों में शेखर यह महसूस कर पाता है कि ललिता की निकटता अब प्यार में बदल चुकी है।
नवीनचंद्र अपने देनदार गुरूचरण से कर्ज की रकम जल्दी चुका देने का आग्रह करता है। गुरूचरण के घर गिरिन अब ज्यादा आने-जाने लगा है। गुरूचरण एक दिन नवीनचंद्र का ऋण चुकाकर मकान छुड़ा लेता है। गुरूचरण के घर में विवाह का आयोजन हो रहा है। विवाह की तैयारियाँ देखकर शेखर समझता है कि गिरिन का विवाह ललिता से हो गया है। वास्तव में गिरिन ने गुरूचरण की एक अन्य बेटी से विवाह किया है। ललिता स्वयं को शेखर की वाग्दत्ता मानती है। जैसे ही शेखर पर यह भेद खुलता है वह तुरंत ललिता को अपनी माँ के पास ले जाता है ताकि वह अपनी भावी पुत्रवधू को आशीर्वाद दे सके।
अपनी अगली फिल्म 'दो बीघा जमीन' में बिमल राय ने सामाजिक विषमता को दर्शाने वाला कथ्य चुना था। यही एकमात्र फिल्म है जो 'हमराही'की परंपरा में आती है। 'दो बीघा जमीन' में हम शरतचंद्र के औपन्यासिक पात्रों की मध्यवर्गीय दुनिया से निकलकर एक किसान की समस्याओं को देखने समझने का अवसर पाते हैं। 'दो बीघा जमीन' को देखकर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था कि भारत किसी अन्य प्रकार से न सही लेकिन राजनीतिक दृष्टि से एक नव स्वतंत्र देश है। इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश के आर्थिक विकास को इस क्रूर निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात है।
'दो बीघा जमीन' की कहानी सलिल चौधरी, पटकथा ऋषिकेश मुखर्जी और गीत शैलेंद्र ने लिखे थे। शायद यह क्रूर सी दिखने वाली फिल्म बिमल राय ही बना सकते थे जिन्होंने 1941-42 में 'हमराही पर काम किया था इसी कारण बीते दस वर्षों में भारत ने विकास की जो दिशा ग्रहण की थी, उसकी विवेचना कर पाने में समर्थ थे।
'दो बीघा जमीन' एक ऐसे किसान की कहानी है जो गाँव का सबसे सुखी किसान है, क्योंकि वह खुदकाश्त है। किसी की जमीन पर मजदूरी नहीं करता लेकिन जमींदार गाँव की सारी जमीन एक उद्योगपति को बेच देना चाहता है। इसमें शंभू की 'दो बीघा जमीन' बाधा बनती है। जमींदार शंभू को बुलाकर बताता है कि उस पर दो सौ पैंतीस रुपये का कर्ज है जो उसे कल तक चुका देना चाहिए। लेकिन शंभू को अदालत से तीन माह का समय मिल जाता है।
शंभू अपने बेटे कन्हैया को साथ लेकर और अपनी पत्नी पार्वती को गाँव में ही छोड़कर पैसे कमाने के लिए, कलकत्ता चला आता है। पित्रा पुत्र दोनों कड़ी मेहनत करते हैं, चोरी करने या न करने के अंतर्द्वंद्व के शिकार होते हैं, अस्वस्थ होते हैं, लेकिन अपने काम में जुटे रहते हैं। इन प्रसंगों में बिमल राय ने कलकत्ता शहर के चरित्र को उजागर किया है। सन 1956 में जब वेनिस फिल्म समारोह में यह फिल्म दिखाई गई तो पश्चिमी दर्शक कलकत्ता शहर को देखकर चकित हो गए। एक अमेरिकी आलोचक ने अपने लेख में भारत की इस खूबी का वर्णन किया है कि जहाँ शहर की सड़कों पर,आ जा रही कारों के बीच, गाएँ और भैसें भी आती-जाती रहती हैं।
दरअसल 'दो बीघा जमीन' में पहली बार एक शहर, कथा को आगे बढ़ाने का बहाना भर बनकर नहीं, बल्कि अपनी अस्मिता के साथ सिनेमा के पर्दे पर उपस्थित हुआ था। इस परिवर्तन को भी कई लोगों ने महसूस किया। सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक इकबाल मसूद ने अपने लेख, 'द फिफ्टीज, द सिटी : पैराडाइज एंड इनफर्नों' में लिखा था, 'बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' का कलकत्ता हिंदी के लोकप्रिय सिनेमा में दिखाई दिया पहला उल्लेखनीय शहर भी है। यह उजड़े हुए गैर-बंगाली किसान की आँखों से देखा गया कलकत्ता है, जो इस शहर में पैसे कमाने तथा पूंजीपति जमींदार से अपनी जमीन छुड़वाने आया है। यह फुटपाथों और काम के बोझ से थक गए रिक्शा वालों का कलकत्ता है। बिमल राय की यह फिल्म शहर को अस्थायी मजदूर तथा सर्वहारा के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करती है। ऐसी कोशिशें सिनेमा में बहुत कम हुई हैं।'
शरतचंद्र के उपन्यास 'बिराज-बहू' पर आधारित फिल्म में बिमल राय ने नायिका के व्यक्तित्व को उभारने का सफल प्रयत्न किया। बिराज एक गरीब परिवार की बहू है। वह मिट्टी के खिलौने बनाकर परिवार की आय में अपनी ओर से भी योगदान देती है। बिराज न केवल सर्वगुण संपन्न है बल्कि वह बहुत सुंदर भी है। इसी सुंदरता पर गाँव का जमींदार रीझ जाता है और उसका अपहरण कर लेता है। इस विषय को कई फिल्मकारों ने अपनी तरह से छुआ है। इन कथाओं में स्त्री निरपराध होते हुए भी दोषी मानी जाती है और इस की सजा उसे अपने प्राण देकर ही चुकानी पड़ती है।
'बिराज बहू' में नीलांबर और पीतांबर की पत्नियों के सौहार्द्र को बिमल राय ने लगन से फिल्माया है। भले ही दोनों स्त्रियाँ शरीर से घर को बाँटने वाली दीवार को पार नहीं कर सकतीं। उनका स्नेह इस दीवार के अस्तित्व को मिटा देता है। फिल्मांकन में उनका आपसी स्नेह सशक्त होकर उभरता है।
'बिराज बहू' फिल्म बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों के ग्रामीण जीवन, संयुक्त परिवार और पति-पत्नी संबंधों का प्रमाणिक चित्र प्रस्तुत करती है। उस समाज में यह संभव था कि कोई स्त्री एक बुरे पुरुष को डाँट सकती थी और वह पुरुष प्रत्युत्तर न देकर चुप रहता था। बिराज बहू ने जिस बात पर जमींदार को डाँटा, जब बिराज बहू का पति यह कहता है कि वह जमींदार से यह शिकायत करेगा कि वह दिन भर वहाँ क्यों खड़ा रहता है जहाँ से गाँव की स्त्रियाँ पानी लाती है। तब वह उसे बरज देती है क्योंकि वह जानती है कि यहाँ पुरुषों का अहंकार आड़े आ जाएगा। कुतर्क से बचने के लिए यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि कोई भी समीक्षक यह नहीं कह रहा कि 'बिराज बहू' का गाँव आदर्श गाँव है या उस जीवन और समाज में अनेक बुराइयाँ नहीं थीं।
यह सही है कि आज हम उस जीवन पद्धति से बहुत आगे निकल आए हैं। 'बिराज बहू' में राम-सीता के मिथक द्वारा कथा कही गई है। उपन्यासकार शरतचंद्र की सोच इस फिल्म को शक्ति भी प्रदान करती है और कमजोर भी बनाती है। यही क्या कम है कि यह फिल्म देखकर 'पाथेर-पांचाली' का स्मरण हो आता है। यह भी सच है कि बिमल राय उस स्तर तक कहीं पहुँच पाते।
सन 1955 में बनी बिमल राय की 'देवदास' सन 1935 में बनी प्रमथेश चंद्र बरुआ, सहगल और जमना की 'देवदास' की तुलना में वाकई बेहतर और चुस्त फिल्म थी। इस फिल्म से जुड़े सभी लोगों ने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया था। इस फिल्म से हिंदी सिनेमा की उस समय की बहुत-सी दिग्गज प्रतिभाएँ जुड़ी थीं। दिलीप कुमार देवदास बने थे, पार्वती की भूमिका सुचित्रा सेन ने की थी, वेश्या चँद्रमुखी के पात्र को वैजयंतीमाला ने और देवदास के कलकत्ता के मित्र चुन्नीलाल की भूमिका को मोतीलाल ने जीवंत कर दिया था। गीत साहिर लुधियानवी ने लिखे थे, संगीत सचिन देव बर्मन का था। पटकथा तथा संवाद नबेंदू घोष और राजेंद्र सिंह बेदी के थे।
'देवदास' की अपार सफलता के कारणों से बिमल राय भली भाँति परिचित थे। वे जानते थे कि फिल्म की तुलना फिल्म से ही की जाती है। शरतचंद्र के उपन्यास 'देवदास' को पढ़ने के बाद फिल्म देखने वाले लोग इक्का दुक्का ही होंगे। बिमल राय ने कहा था, 'शरतचंद्र' के उपन्यासों पर फिल्म बनाना मेरे लिए सर्वाधिक आनंददायी कर्म है। हालाँकि किसी भी साहित्यिक उपन्यास पर फिल्म बनाना तनी हुई रस्सी पर चलने के समान है। जब भी फिल्म का किसी उपन्यास में फिल्मांकन की जरूरतों के अनुसार बहुत छोटी सी छूट भी लेता है तो साहित्य प्रेमी कराह उठते हैं। मुझे शरतचंद्र के उपन्यासों पर तीन फिल्में 'बिराज बहू', 'परिणीता' और 'देवदास' बनाने का अवसर मिला है।
'शरतचंद्र के उपन्यासों के प्रत्येक पात्र के अनेक पाठ संभव हैं। पात्र को पाठक अपने नजरिए से व्याख्यायित करता है। इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं है कि पाठक, फिल्मकार की व्याख्या से सहमत न हो लेकिन फिल्मकार को उसकी अपनी व्याख्या के लिए दोषी ठहराना क्या उचित होगा?
'दूसरी ओर एक बुरी परिपाटी यह भी है कि शरतचंद्र के उपन्यासों पर बनी फिल्मों को तुलना उससे पूर्व बनी फिल्मों ही के साथ की जाती है। फिल्म पत्रकारों और फिल्म समीक्षकों की टिप्पणियाँ इसी प्रकार की होती हैं। बहुत ही कम प्रबुद्ध दर्शक ऐसे होंगे जो शरतचंद्र का उपन्यास पढ़कर, उस पर मनन करने के बाद, उस उपन्यास पर आधारित फिल्म देखें और सीधे उपन्यास के साथ फिल्म को जोड़ें। तमाम कठिनाइयों के बाद भी यदि मुझे शरतचंद्र की एक और उपन्यास पर फिल्म बनाने का अवसर मिलेगा तो यह मेरा सौभाग्य होगा।'
यह बात सही है कि 'बिराज बहू' के पति के पात्र को कई कोणों से देखा जा सकता है वह अपनी पत्नी से बेहद प्यार करने वाला उसका अत्यंत आदर करने वाला पति है लेकिन व्यावहारिक जीवन में असफल और (यदि आधुनिक दृष्टि से परखा जाए तो) एक निकम्मा पुरुष है आदि-आदि। यही अनेकों कोण संवेदनशील समीक्षक या पाठक के समक्ष व्याख्या की चुनौतियाँ प्रस्तुत करते हैं। सबसे आसान काम है कि 'बिराज बहू' को दांपत्य जीवन की सीधी-सरल-अनउलझी कथा कहकर खारिज कर दिया जाए।
'यहूदी' फिल्म की पटकथा नबेंदू घोष की थी और संवाद वजाहत मिर्जा के। आगा हश्र कश्मीरी की कहानी के अनुसार मोजेस ने क्रोधित होकर यहूदियों को अविश्वास का श्राप दिया था, उसी दिन से यहूदी सारी मानवजाति की घृणा और उपेक्षा के पात्र हैं। शापित यहूदी जगह-जगह भटक रहे हैं। वे किसी भी देश के नागरिक नहीं हैं।
एजरा एक यहूदी व्यापारी है। रोम में वह प्रतिष्ठित है लेकिन एक दिन जब रोम का राजा ब्रूटस रास्ते से जा रहा है तभी एजरा के पुत्र द्वारा अनजाने में एक ईंट गिर जाती है। ब्रूटस आदेश देता है कि यह हमला किसने किया फलतः एजरा के बेटे को पकड़ लिया जाता है और मौत के घाट उतार दिया जाता है। इधर एजरा का नौकर इलियास (तिवारी) रात के अंधेरे में ब्रूटस (नासिर हुसैन) की बेटी को उठा लाता है। एजरा को इस बालिका में अपने पुत्र की प्रतिछाया दिख पड़ती है। पंद्रह वर्ष गुजर जाते हैं। इस बीच रोमन सैनिक यहूदियों पर अत्याचार करते रहे हैं। अब हान्ना (मीना कुमारी) बीस वर्ष की है। एक दिन रोम का राजकुमार घर लौट रहा है उसका रथ उलट जाता है और वह लुढ़कता हुआ नीचे गिर पड़ता है। होश में आने पर वह हान्ना को देखता है।
शहजादा मारकस - 'कहाँ हूँ मैं - जमीन पर या जन्नत में (रोमन राजकुमार)
हान्ना - मुँह बंद रखिए आगे ही कीचड़ लगा रखा है उस पर....'
(यहूदन)
अब मारकस यहूदी का वेश धरकर हान्ना के घर पहुँच जाता है। एजरा उसे अपने शिष्य की भाँति अपना लेता है। यहाँ मारकस का नाम मंशिया है।
यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि मारकस मंशिया होना चाहता है या मारकस ही रहना चाहता है। मारकस के बदले हुए व्यवहार से उसकी मंगेतर ऑक्टेविया भी चिंतित है। एक दिन ऑक्टेविया यहूदी व्यापारी एजरा के घर हीरे खरीदने आती है उस समय मारकस वहाँ मंशिया के रूप में उपस्थित है। एजरा इन शाही मेहमानों को हीरे-जवाहरात दिखाने का आदेश देकर चला जाता है।
मारकस अपना चेहरा छुपा रहा है। यह एक छोटा सा हास्य दृश्य तो है ही, इसमें त्रासदी भी है। मारकस अपनी मंगेतर से आँखें चुरा रहा है। यानी वह अपना सुरक्षित महल छोड़कर इस असुरक्षित घर को अपना ठिकाना बनाना चाह रहा है। अपनी पहचान संदिग्ध बना रहा है। क्योंकि इस घर में यदि वह 'पहचान' लिया गया तो अजनबी हो जाएगा। दूसरी ओर आक्टेविया के सम्मुख बेजान हीरे बिखरे पड़े हैं लेकिन वह अपनी तेज नजर और सहज मेधा से जान लेती है कि असली हीरा उसके हाथ से छूटकर हान्ना की झोली में जा गिरा है।
सन 1959 में उन्होंने 'सुजाता' का निर्माण और निर्देशन किया। उपेंद्रनाथ चौधरी और उनकी पत्नी चारु, एक अछूत लड़की सुजाता को गोद ले लेते हैं। सुजाता के माता पिता एक महामारी के शिकार हो चुके हैं। 'सुजाता' इसी परिवार में पलती और बड़ी होती है लेकिन उसके अछूत होने की पहचान इस परिवार को बेचैन बनाए रखती है। चारु और उपेंद्रनाथ की एक अपनी बेटी रमा भी है। रमा और सुजाता दोनों ही केवल बहनों की तरह ही नहीं बल्कि दो बहुत अच्छे मित्रों की तरह रहती हैं। सुजाता का मधुर व्यवहार ही उसे इस घर में टिकाए रखता है, वरना चौधरी परिवार तो कई बार यह प्रयत्न कर चुका है कि सुजाता को किसी भी तरह इस घर से निकाल दिया जाए।
चारु की एक सहेली गिरिबाला भी, चारु को यह चेतावनी दे चुकी है कि घर में एक अछूत को घर के एक सदस्य की तरह ही रखने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। गिरिबाला और चौधरी परिवार दोनों ही इस बात पर एकमत हैं कि रमा का विवाह गिरिबाला के पोते अधीर से हो जाए लेकिन अधीर स्वयं सुजाता को पसंद करता है। समस्या विकट होती जाती है। दोनों परिवारों के सदस्यों में सुजाता के प्रति कड़ुवाहट बढ़ती जाती है। इधर अधीर और सुजाता एक दूसरे के साथ जीने और मरने का निश्चय कर लेते हैं। एक दिन चारु सीढ़ियों से फिसलकर गिर जाती है और बुरी तरह घायल हो जाती है। केवल सुजाता का खून ही उसे बचा सकता है और सुजाता अपना रक्त देती है। चारु और सुजाता के रक्त वर्ग की समानता ही चारु में यह चेतना जगाती है कि छूत-अछूत की समस्या को मानव ने अपने क्षुद्र स्वार्थो की पूर्ति हेतु निर्मित किया है। मानवीय अस्तित्व इस प्रकार के भेद स्वीकार नहीं करता।
सन 1960 में निर्देशित 'परख' में बिमल राय एक अछूता विषय उठाते हैं। 'परख' स्वतंत्र भारत के तीसरे आम चुनाव से पहले प्रदर्शित हुई थी। यह फिल्म भारत की चुनावी राजनीति पर तीखा व्यंग्य करती है। राधानगर नाम के छोटे से गाँव के पोस्टमास्टर को पाँच लाख रुपये का चेक मिलता है। चैक पर जे.सी. राय के हस्ताक्षर हैं और यह निर्देश संलग्न है कि इस धनराशि को गाँव के सब से अच्छे आदमी को दे दिया जाए। पोस्टमास्टर की पूरी रात बेचैनी में कटती है। सुबह वह गाँव के पाँच ऐसे लोगों को बुलाता है, जो गाँव के प्रभावशाली व्यक्ति माने जाते हैं। जमींदार तांडव तरफदार, महापंडित तर्क अलंकार, गाँव के मजदूरों के नेता हरिहर कुंज, गाँव के स्कूल का मास्टर रजत और गाँव के डॉक्टर हरी-इन्हीं पांचों में से सर्वोत्तम का चुनाव किया जाना है।
तुरंत चुनावी राजनीति और सरगर्मियाँ शुरू हो जाती हैं। शांत गाँव तरह-तरह के शोर शराबे में डूब जाता है। जमींदार ढोल ताशे बजाकर यह घोषणा करवा देता है कि उसने सब कर्जे माफ कर दिए हैं। साहूकार एक कुशल इंजीनियर को बुलवाता है तथा तुरंत गाँव में नलकूपों की खुदाई का काम शुरू करवा देता है। मास्टर रजत पूर्ववत गाँव की सेवा में लगा रहता है और गाँव वालों के छोटे-मोटे काम करता रहता है। डॉक्टर यह घोषणा करता है कि उस के दवाखाने पर दवा निःशुल्क मिलेगी और पंडितजी भविष्यवाणी करते हैं कि इस गाँव पर लक्ष्मी की अपार कृपा होने वाली है।
पूरे गाँव के लोग इन खानदानी शोषकों के अचानक दयावान हो जाने पर चकित हो उठते हैं। इन खजानों के खुल जाने पर भी मास्टर रजत ही अपनी निस्वार्थ सेवा के कारण गाँव का लोकप्रिय व्यक्ति बना रहता है। पंडित तथा साहूकार मिलकर मास्टर रजत को बदनाम करने का कुचक्र रचते हैं और अगली रात को कुछ लोग युवक रजत तथा पोस्टमास्टर की लड़की सीमा को साथ-साथ देखते हैं। गाँव का पोस्टमैन हरधन इन सब घटनाओं पर निगरानी रखता है। अंततः यह फैसला हो जाता है कि गाँव का श्रेष्ठ व्यक्ति कौन है। हरधन अपनी वास्तविक पहचान बताता है और पता चलता है कि वही जे.सी. राय है। पाँच लाख रुपये रजत और सीमा को दे दिए जाते हैं।
सन 1963 में बिमल राय ने एक अत्यंत उत्तम कृति 'बंदिनी' का निर्माण एवं निर्देशन किया। 'बंदिनी' इस से पूर्व बिमल राय द्वारा निर्देशित'परिणीता' का ही तार्किक विस्तार है। यहीं यह भी दिखाई देता है कि 'परिणीता' से 'बंदिनी' तक पहुँचने में बिमल राय की सिनेमाई भाषा पर पकड़ कितनी मजबूत हुई है। 'बंदिनी' एक असाधारण फिल्म है। 'बंदिनी' की कहानी तो बहाना भर है। यह फिल्म सिनेमा की भाषा में रची गई एक सुंदर कविता है। कल्याणी नाम की युवती अपने गाँव में कैद हो कर आए एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी विकास घोष से प्यार करने लगती है। विकास घोष और कल्याणी का प्यार बढ़ता है और जब विकास घोष को दूसरी जेल में ले जाया जाता है तो जाने से पहले विकास घोष, कल्याणी को अपनी पत्नी मानकर स्वीकार करता है।
पूरा गाँव जानता है कि कल्याणी अब विकास घोष की पत्नी है। लेकिन वर्षों गुजर जाते हैं और विकास घोष की कोई खबर ही नहीं आती। एक दिन यह खबर मिलती है कि स्वतंत्र होने के बाद विकास घोष ने विवाह कर लिया है और दूसरे शहर में रहने लगा है। गाँव वाले कल्याणी तथा उस के पिता का मजाक उड़ाने लगते हैं। परेशान होकर कल्याणी अपना गाँव और घर छोड़ देती है। अपने ही विचारों में कैद, अपनी ही दुविधा में उलझी कल्याणी शहर पहुँचकर एक दुर्घटना में फँस जाती है और कैदी बन जेल पहुँच जाती है। सभी इस सीधी सरल लड़की को देखकर चकित होते हैं। जेल का डॉक्टर देवेंद्र तो कल्याणी से प्यार करने लगता है लेकिन कल्याणी सिर्फ एक सवाल के घेरे में कैद है, क्या अब भी वह विकास की पत्नी है या नहीं यदि विकास ने अपना वचन तोड़ दिया है तो क्या वह भी इस बंधन से मुक्त हो गई है कैद से तो वह अपने अच्छे व्यवहार के कारण छूट जाती है लेकिन इस सवाल की बंदिनी बनी रहती है। बिमल राय अपनी इस फिल्म में संकेतों द्वारा गहनतम मनोभावनाओं को अभिव्यक्ति देने में सफल हो सके हैं 'बंदिनी' बिमल राय की सर्वोत्कृष्ट कृति है।
बिमल राय की फिल्मों पर उसी स्तर का या बेहतर समीक्षाकर्म संभव है जैसा कि शेखर एक जीवनी और कामायनी पर हुआ है। हिंदी की तथा विश्व की क्लासिक फिल्मों के अध्ययन-अध्यापन से नई रचनात्मकता का विकास संभव है। आज साधनों का अभाव नहीं है लेकिन कहीं इच्छा शक्ति की कमी है। नई विधा पर अध्ययन आरंभ करने में अध्यापकीय संकोच भी एक बाधा है। आशा है इन बाधाओं से पार पाया जा सकेगा।

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मणि कौल का सिनेमा और हिंदी -प्रयाग शुक्ल





मणि कौल की अधिकतर फिल्में हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर ही केंद्रित/आधारित हैं। 'सतह से उठता आदमी' (मुक्तिबोध) 'उसकी रोटी' (मोहन राकेश) और 'नौकर की कमीज' (विनोद कुमार शुक्ल) का ध्यान इस सिलसिले में सहज ही हो आता है। फिर 'दुविधा' (विजयदान देथा) भी है - राजस्थानी/हिंदी में। इस तथ्य के स्मरण के साथ यह बात भी सहज ही ध्यान में आती है कि वह भाषा से संबंधित या उसको सोचता हुआ सिनेमा भर नहीं है - वह भाषा को सोचता हुआ सिनेमा भी है। इस नाते मणि कौल का सिनेमा हिंदी में बनी हुई फिल्मों से बहुत अलग हैः फिर वे चाहे बॉलीबुड की फिल्में हो या समांतर सिनेमा की फिल्में।
यह तो सर्वज्ञात है कि कोई भी भाषा किसी अन्य माध्यम/विधा में व्यवहृत होते ही, एक अलग प्रकार की भूमिका में उतर जाती है, फिर वह चाहे कविता-कहानी-नाटक-उपन्यास-निबंध में बरती जा रही हो, या रंगमंच, सिनेमा और संगीत में। पर, यह भी होता ही है कि उसकी यह भूमिका कभी-कभी इतनी सघन, तीव्र, गहरी, एकाग्र और मौलिक हो सकती है कि उस पर अलग से सोचने की जरूरत महसूस होती है। मणि कौल की फिल्मों में हिंदी की भूमिका पर, भाषा की भूमिका पर, अलग से सोचने और चर्चा करने की ऐसी ही जरूरत सचमुच महसूस होती है, क्योंकि वह सिने भाषा में, सिने माध्यम में, भाषा का व्यवहार कुछ ऐसा सोचने और खोजने के लिए किया जा रहा है जो किसी मानवीय अर्थ और बोध को छवियों के साथ मिलकर बहुत गहरा कर रहा हो।
जब उसकी 'रोटी' फिल्म रिलीज हुई थी तो उसे यह कहकर बहुतों के द्वारा कोसा गया था कि वह अत्यंत शिथिल और उबाऊ है, कि उसके'विलंबित लय' वाले संवाद अत्यंत असहज लगते हैं। तब इस बात को भुला दिया गया था कि संवादों की इस प्रकार की अदायगी का अपना अर्थ और मर्म है। दुभार्ग्यवश मणि कौल के सिनेमा को लेकर यह बात इतनी बार दुहराई गई कि आम दर्शक का ध्यान तो उसकी ओर से कटता ही गया, जिन्हें हम प्रबुद्ध दर्शक कहेंगे वे भी उनके सिनेमा को लेकर उस तरह उत्साहित नहीं हुए, जिस तरह कि होना चाहिए। उदयन वाजपेयी की एक पुस्तक 'अनेक आकाश' जरूर एक अपवाद की तरह सामने आई, और कुछ कवियों-लेखकों सिने-प्रेमियों की वे टिप्पणियाँ भी जो मणि कौल के सिनेमा को 'खारिज' करने की जगह उसकी खोज-परक यात्रा को समझने का यत्न करती हुई मालूम पड़ीं।
यह भी कम दुर्भाग्य की बात नहीं थी कि मणि कौल के सिनेमा को लेकर यह धारणा भी बनी, बनाई गई - और प्रचारित भी हुई - कि उनका सिनेमा पश्चिम के फिल्मकारों से प्रेरित सिनेमा है। जबकि स्थिति यह है कि वह फेलिनी, इंगमार बर्गमैन, फ्रांसुआ त्रुफो, गोदार आदि-आदि के सिनेमा से कहीं रोल नहीं खाता। हाँ, उसमें ऋत्विक घटक के सिनेमा की 'प्रतिध्वनियाँ' अवश्य हैं, जो मणि कौल के 'गुरू' और पथ प्रदर्शक थे। अच्छी बात यह भी है कि मणि 'प्रतिध्वनियों' पर ही नहीं रुके, अपनी तरह की सिने-भाषा की खोज में लगे रहे। प्रसंगवश, यहाँ यह भी याद करने की जरूरत है कि मणि कौल का संगीत से गहरा संबंध था और उन्होंने स्वयं ध्रुपद सीखा, और अंनतर कुछ देशी-विदेशी शिष्यों को सिखाया भी। यह स्वाभाविक ही था कि सिनेमा में भी वह शब्द-भाषा को सांगीतिक रचना का-सा आधार देकर, भाषा-मर्म की कई तहों को टटोलते-खँगालते। 'सिद्धेश्वरी देवी' जैसी वृत्तात्मक फिल्म में मणि कौल ने बनारस के घाटों, गंगा, और इमारतों के भीतर-बाहर के दृश्यों को जिस तरह फिल्माया है, और शब्दों की बारी आने पर, इन सबके बीच उन्हें तैयारा-गुंजाया है, उसका मर्म फिल्म देखते हुए ही समझा जा सकता है - उसे लिखकर बताना बहुत मुश्किल ही है। सो, वह यत्न में नहीं करूँगा। अपने को एक बार यह-याद जरूर दिलाऊँगा कि अगली बार जब भी 'सिद्धेश्वरी' को देखने का अवसर आए तो उसमें शब्द-व्यवहार को लेकर अपनाए गए दृष्टिकोण को लेकर और सजग रहूँ। स्मृति के आधार पर - फिल्म की स्मृति के आधार पर - अभी तो एक चीज का ध्यान और गहरा रहा है कि मणि ने अपनी फिल्मों में शब्द को 'प्रहरों' के आधार पर जिस तरह बरता है, उस पर भी ध्यान जाना ही चाहिए। कोई पहर रात का है, दिन दुपहर-शाम का है, और वह क्या करूँ ... क्या करूँ ... कह' रहा है और शब्द-माध्यम से (छवियों के बीच) उस पर और क्या कसर या 'कहलवाया' जा सकता है, इस पर उनकी पकड़ अचूक रहती है।
यह भी गौर करने वाली बात है कि मणि कौल की जिन फिल्मों में, शब्द-व्यवहार गौण है - जैसे कि 'माटी मानस' में, वहाँ भी छवियों को फिल्मकार के द्वारा भाषा में ही सोचा जा रहा है - 'माटी मानस', दृश्यों का, माटी निर्मित चीजों का, फिल्मांकन मात्र नहीं है, पर दृश्य कुछ कह रहा है, और उस दृश्य के पीछे से भाषा मानों बिन बोले भी, बोल रही है, हमें गहरे में स्पर्श भी कर रही है। यह एक 'जादू' है, जिसे मणि ने लाघव के साथ साधा है। अगर ऐसा न होता, हर दृश्य एक 'क्या' भी न करूँ रहा होता, तो 'माटी मानस' जैसा लंबा वृत्त-चित्र, एक फीचर फिल्म का-सा आनंद हमें न दे पाता। 'सतह से उठता आदमी' ही भाषा के 'अचूक' और नितांत नए तेवरों के कारण अपूर्व है ही।
मणि की अपनी भाषा तो कश्मीरी थी, पर, जब हिंदी को उन्होंने बरता तो उसमें इतना गहरे पैठकर बरता, कि उस पर तो कोई अलग से भी'अध्ययन' कर सकता है। मैं यह टिप्पणी, अपनी बेटी वर्षिता के यहाँ, त्रांदाइम (नार्वे) में बैठकर लिख रहा हूँ, जहाँ फिलहाल इस बात का अवकाश नहीं है कि मैं मणि कौल की कुछ फिल्मों को पुनः देखता, और कुछ अधिक संदर्भ-सामग्री जुटाता। मणि पर लिखे गए लेखों और टिप्पणियों की प्रतिलिपियाँ भी नहीं हैं, जो भारत में घर पर हैं। पूरी टिप्पणी स्मृति के आधार पर लिखी है, और उन चीजों के आधार पर, जो मन में बसी हुई हैं - मणि के सिनेमा को लेकर।
और कह सकता हूँ कि 'स्मृतियाँ' कई हैं - सिद्धेश्वरी देवी के फिल्मांकन के बीच मीता वशिष्ठ का स्वर जिस तरह तरंगित होकर एक-एक शब्द को ध्वनित करता है, और स्वयं अभिनेत्री की देह जिस तरह जल की सतह के भीतर-ऊपर तरंगित होकर देह-भाषा से भी बहुत कुछ कहती है - और देह - भाषा और शब्द भाषा, अपनी अपनी तरंगों में अलग होते हुए, कहीं मिल भी जाते हैं, वह अपूर्व है। शब्द भाषा से कब, कैसा, और कितना, काम लेना है,इस पर मणि का सोच निश्चय ही एक अलग प्रभाव डालता है। छवियों के सिलसिले में 'दुविधा' का 'गुड़ प्रसंग' ने भी मुझे बहुत आकर्षित किया था।
मणि के साथ अपनी मुलाकातों की भी कई स्मृतियाँ हैं। एक बार मणि, मैं, चित्रकार मनजीत बाबा, और दो-एक अन्य मित्र कार से चंडीगढ़ और फिर वहाँ से जालंधर गए थे, और साथ ही दिल्ली लौटे थे। मणि की दृष्टि बेधक थी। वे बातें करते थे। मुखर थे। जालंधर के रास्ते में जब हम कहीं कुछ खाने-पीने के लिए किसी ढाबे पर रुकते थे, तो किसी दृश्य, वस्तु, व्यक्ति, प्रसंग, पर उनकी टिप्पणी देखने-सुनने वाली होती थी। कुछ स्मृतियाँ किसी चित्र-प्रदर्शनी को साथ-साथ देखने की भी हैं। हम 'स्मृतियों' के विवरणों को कुछ भूल भी जाते हैं। और बातचीत भी हूबहू कहाँ याद रहती है। पर, स्मृति में किसी से मिलने-बातियाने' का और उस 'सुख' का एक बोध बना रहता है। वही बोध मणि से 'मिलने' का मन में बना हुआ है।
क्या मणि अपने सिनेमा में भी स्मृति (यों) के 'बोध' की बात ही नहीं करते, ओर नैरेटिव के बोझ को उतारकर फेंक नहीं देते। और जब शब्द-भाषा के माध्यम से किसी संवाद या उच्चारण को रखते हैं तो बस स्मृति के, उसके मर्म को गहरा करने के लिए ही रखते हैं - शब्दों का कोई अपव्यय किए बिना!