पीपल वाले पीर की फिल्म
वरिष्ठ फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी अपनी नई फिल्म जेड प्लस के जरिए एक नई इबारत लिखने की कोशिश कर रहे हैं.
जेड प्लस उस मोहल्ले से निकली है जिसमें वेलकम टू
सज्जनपुर, सारे जहां से महंगा, वार छोड़ ना यार, तेरे बिन लादेन जैसी
फिल्में बसती हैं. अपने आस-पास की घटनाएं, आस-पास की राजनीति, वहीं का
समाज, वहीं की छुद्रताएं, वहीं की उदारता. सौ करोड़ रुपये के नशे में डूबी,
चमचमाती कारों, शानदार बिल्डिंगों और विश्वास से परे दृश्यों से इसका
दूर-दूर तक लेना देना नहीं है. फिल्म के निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी एक
बार फिर से एक अनूठी टीम के साथ सामने आए हैं. पुराने राष्ट्रीय नाट्य
विद्यालय के साथी, चाणक्य और पिंजर के सहयोगी और साथ में मोना सिंह और आदिल
हुसैन जैसे कुछ नए साथी.
जेड प्लस की कहानी मौजूदा भारत के एक छोटे से गांव में बसने वाले आम
आदमी और इस देश की शीर्ष राजनीति के आपसी संबंधों की कहानी है. कहानी इस
मायने में जरूरी है कि देश की राजनीति बुरी तरह से उन्हीं लोगों से कटी हुई
है जिनसे उसकी सारी ताकत आती है. साथ ही कहानी छोटे-छोटे कई ताने-बाने को
भी उधेड़ती है. मसलन जो सरकार सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने का दम भरती है
वह अपनी सरकार बचाने के लिए किस हद तक सांप्रदायिक हो सकती है कि अपने सारे
राजनैतिक कौशल और कामकाज को किनारे रख कर दरगाह पर चादर के भरोसे हो जाती
है. इतना ही नहीं जब वह राजनीति अपने दिखावे में संवेदनशील होना चाहती है
तब ऐसा काम करती है जिससे उसकी साख और समझ दोनों पर सवाल खड़ा हो जाता है.
वह गांव के एक पंक्चरवाले को जेड प्लस सुरक्षा मुहैया करवाती है. सरकार की
यह नेमत गांव के गरीब पंक्चरवाले की जिंदगी में किस किस्म की उथल-पुथल ले
आती है उसी उठापटक और असमंजस का नाम है जेड प्लस. अपनी छवि के विपरीत और इस
समय में जेड प्लस की जरूरत पर डॉ. द्विवेदी कहते हैं, ‘भारतीय समाज के लिए
पिछले कुछ साल बेहद उठापटक भरे रहे हैं. एक समाज के स्तर पर, इस पर कई तरह
के प्रश्न खड़े हुए हैं, लेकिन साथ ही यह समय समाज में आई चेतना और
जागरुकता का समय भी रहा है. समाज के हर हिस्से में देश के नए स्वरूप को तय
करने की ललक उठ रही है. इसके नतीजे में हम देख रहे हैं कि देश एक बड़े
बदलाव से गुजर रहा है. आम आदमी की इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं राजनीति में
जगह पाने लगी हैं. सामाजिक मंचों से लेकर टेलीविजन तक पर इन बदलावों की
सुगबुगाहट है. लेकिन भारत का सिनेमा इससे एक हद तक अभी भी अछूता है. मेरी
कोशिश है कि इन बदलावों और आम आदमी को फिल्मों में भी जगह मुहैया करवाई
जाय.’
डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी के पिछले कामकाज की बात की जाए तो वह प्राचीन
भारतीय इतिहास और साथ ही सामयिक भारतीय साहित्य से गहरे तक प्रभावित रहा
है. चाणक्य हो, उपनिषद गंगा हो, पिंजर हो या फिर रिलीज के इंजार में बैठी
मोहल्ला अस्सी. खुद उनके शब्दों में, ‘लोग अपने आस-पास की चीजों से ज्यादा
आसानी से जुड़ते हैं. मैं भी उन्हीं का हिस्सा हूं. मुझे भी भारतीय साहित्य
और इतिहास की वो कहानियां गहराई तक प्रेरित करती है जिन्हें हम पीढ़ी दर
पीढ़ी सुनते पढ़ते आ रहे हैं. इसके अलावा मुझे इस मायने में भी अपने काम से
एक सुख मिलता है कि एक नए माध्यम (फिल्म) में इन चीजों का दस्तावेजीकरण हो
रहा है.’ तो क्या जेड प्लस का भी ऐसा ही कोई साहित्यिक-ऐतिहासिक संबंध है?
वे बताते हैं, ‘इस कहानी का प्रवेश चंदा मामा और बेताल पचीसी जैसी
कहानियों की तरह मेरे जीवन में हुआ. मेरे एक मित्र हैं राम कुमार सिंह.
राजस्थान के हैं. उनकी रचनाओं के लिए उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी का
प्रतिष्ठित रागे राघव पुरस्कार मिल चुका है. उन्होंने कुछ साल पहले मुंबई
इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के दौरान मुझे जेड प्लस की कहानी मेरा समय काटने
के लिए सुनाई थी. जिस अंदाज में और जिस रस के साथ वे कहानी सुना रहे थे
उसने मुझे पहली बार में ही कहानी का मुरीद कर दिया. मेरे आग्रह पर उन्होंने
पहले कहानी का ड्राफ्ट भेजा और फिर कुछ दिन बाद कहानी का कॉपीराइट भी मुझे
सौंप दिया. तो आप कह सकते हैं कि फिल्म का और मेरा इतिहास और साहित्य से
जुड़ाव अभी भी कायम है.’
रामकुमार सिंह से कहानी के अधिकार मिलने और फिर उसके फिल्मी कहानी में
तब्दील होने की कहानी भी लंबी और दिलचस्प है. इस कहानी से डॉ. चंद्र प्रकाश
द्विवेदी के व्यक्तित्व के कई और पहलू भी सामने आते हैं. मसलन रामकुमार जो
कि राजस्थान के उसी फतेहपुर से आते हैं जो इस फिल्म की पृष्ठभूमि है. लेखक
और निर्देशक दोनों के बीच फिल्म के संवादों को लेकर अपने-अपने आग्रह थे.
डॉ. द्विवेदी फिल्म को नई कहावतों और मुहावरों के जरिए कम्युनिकेशन
सेंट्रिक बनाना चाहते थे न कि डायलॉग केंद्रित. इस समस्या से निपटने के
चक्कर में फिल्म के ड्राफ्ट पर ड्राफ्ट बनते गए. अंतत: 23वें ड्राफ्ट के
बाद स्क्रिप्ट अपने असली रूप में सामने आई. आज जब वे पीछे मुड़कर देखते हैं
तो पाते हैं कि उनके पिछले कामों में भी सुधार की बहुत गुंजाइशें हैं. वे
कहते हैं, ‘मैं यही सीख पाया हूं कि स्क्रिप्ट लेखन असल में लिखना और फिर
उसे बार-बार लिखने का नाम है. पिंजर की स्क्रिप्ट मेरा पहला ड्राफ्ट था और
वही आखिरी ड्राफ्ट था. आज अगर मुझे इसे लिखने को कहा जाय तो मैं इसमें तमाम
फेरबदल करूंगा. मोहल्ला अस्सी के कुल चौदह ड्राफ्ट बने. और अब जेड प्लस 23
ड्राफ्ट के बाद सामने आ पाया है.’
अपनी कहानियों की तरह ही द्विवेदी अपने पात्रों के मामले भी बहुत सावधान
रहते हैं. एक बार फिर से उन्होंने संजय मिश्रा, मुकेश तिवारी जैसे पुराने
साथियों को जोड़कर फिल्म के मोटी मोटा मिजाज का संकेत लोगों को दे दिया है.
बिना किसी बड़े नाम और तड़क भड़क के उन्होंने बाकी सबकुछ दर्शकों के ऊपर
छोड़ दिया है. इस बार उन्होंने दो नए साथी भी ढूंढ़े हैं जिनका जिक्र करना
जरूरी है. पहला नाम है फिल्म के मुख्य कलाकार आदिल हुसैन का यानी फिल्म का
असलम पंक्चरवाला. यह सुझाव उन्हें उनकी पत्नी मंदिरा से मिला. हुसैन की
अपनी फिल्मी यात्रा उन्हें जेड प्लस जैसी फिल्मों का स्वाभाविक दावेदार
बनाती है. इससे पहले विशाल भारद्वाज की इश्किया के अलावा इंगलिश विंगलिश और
लाइफ ऑफ पाई में दर्शकों का पाला उनसे पड़ चुका है. आदिल हुसैन के शब्दों
में, ‘शायद कोई दूसरा निर्देशक मेरे भीतर के उस एक्टर को नहीं देख सकता था
जो विटी है, ह्युमरस है, जो कॉमेडी कर सकता है. डॉ. साब ने मेरी उस क्षमता
को पहचाना और मौका दिया. उनके साथ मेरे बेहतर तालमेल की एक वजह यह भी रही
कि हम दोनों ही छोटे शहरों से आए लोग हैं. शरारत और बदमाशी तो उनमें भी है
लेकिन छोटे शहरों वाली मासूमियत उनके भीतर अभी भी बची हुई है. इसके अलावा
अपने काम पर उनकी पकड़ का कोई जवाब नहीं है. एक-एक शब्द और डायलॉग वे जिस
तरह से चुनते हैं वह उनके काम के लिए उनका समर्पण दिखाता है. इसीलिए वे एक
एक शब्द को बनाए रखने पर जोर देते हैं, बिना उसे बदले.’
‘हम दोनों ही छोटे शहरों से आए लोग हैं. शरारि और बदमाशी िो हम
दोनों में ही है लेककन छोटे शहरों वाली मासूकमयि उनके भीिर अभी भी बची
हुई है’
द्विवेदी की दूसरी नई पसंद हैं एक्टर मोना सिंह जो फीमेल लीड कर रही
हैं. इस नाम का सुझाव भी मंदिरा ने ही दिया था. पर सुझाव से उनके जुड़ाव तक
की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है. मोना के बिजनेस मैनेजर ने पहले मंदिरा से
निर्देशक का रेज्युमे मांगा. इस पर मंदिरा ने उनसे निर्देशक का नाम गूगल पर
सर्च करने के लिए कहा. किसी तरह से मोना डॉ. द्विवेदी से मिलने को राजी हो
गईं. मोना को कहानी बताने से पहले उन्हें मैनेजर को यह भरोसा देना पड़ा कि
उनके पास फिल्म और मोना सिंह को निर्देशित करने की पूरी क्षमता और योग्यता
है. खैर बात आगे बढ़ी और मोना सिंह फिल्म करने के लिए राजी हो गईं. शूटिंग
के पहले ही दिन फिल्म के संवाद को लेकर मोना और डॉ. द्विवेदी के बीच कुछ
बातें हुईं. डॉ. द्विवेदी ने मोना के सामने जयशंकर प्रसाद की एक कविता कही
और उसे मोना से दुहराने या लिखने को कहा. इसके बाद उन्होंने गुलजार का एक
गीत सुनाया और उसे मोना से लिखने को कहा. बात मोना को समझ आ गई. इसके बाद
उन्होंने फिल्म के किसी भी संवाद में एक भी शब्द का हेरफेर करने की जिद
नहीं की.
फिल्म को एक मोटे दायरे में देखें तो यह समाज के सबसे निचले और सबसे
ऊंची पायदान पर पहुंचे आदमी के बीच का अंतर है, उनके बीच के विरोधाभास हैं,
और पूरी कहानी के दौरान मौजूद एक ब्लैक ह्यूमर है जो अपनी पूरी कड़वाहट और
गड़बड़ियों में भी दूसरों को हंसने का मौका देती है. और साथ में जेड प्लस
सत्ता में बैठकर ताकत की कैंची चलाने वाली उस राजनीति की कहानी तो है ही जो
खुद की जड़ें भी काट चुकी है.
‘सिनेमा अाज भी मेरे लिए जुनून है’
पिंजर जैसी बहुचर्चित फिल्म के निर्देशक डॉ. चंद्र प्रकाश
द्विवेदी अपनी नई फिल्म जेड प्लस के साथ एक बार फिर से दर्शकों के सामने
हैं. फिल्म के प्रोमो रिलीज से पहले अतुल चौरसिया के साथ हुई उनकी
बातचीत
क्या अब मान लिया जाए कि डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी इतिहास के पन्नों से बाहर निकल चुके हैं?
नहीं, इसमें भी आपको देश के 67 सालों के इतिहास की झलक मिल जाएगी. जो राजनैतिक उथल-पुथल इस पूरे समय में देश ने देखी है, और वह जिन वजहों से हुई है उसकी झलक इसमें दर्शकों को मिल जाएगी. यह एक राजनैतिक-सामाजिक व्यंग्य है. मेरा यह भी मानना है कि देश का जो भी साहित्य लिखा जाता है वह कहीं न कहीं उसके इतिहास का दस्तावेज होता है. हमारे प्राचीन शास्त्र भी यही कहते हैं कि नाट्य शास्त्र भी इतिहास की श्रेणी में रखा जाता है. नाट्य के जरिए हम अतीत की अनुकरणीय घटनाओं का उल्लेख करते हैं. मैंने इतिहास की जमीन नहीं छोड़ी है. इसमें भी मैं गाहे बगाहे इतिहास को छूते हुए निकल जाता हूं.
नहीं, इसमें भी आपको देश के 67 सालों के इतिहास की झलक मिल जाएगी. जो राजनैतिक उथल-पुथल इस पूरे समय में देश ने देखी है, और वह जिन वजहों से हुई है उसकी झलक इसमें दर्शकों को मिल जाएगी. यह एक राजनैतिक-सामाजिक व्यंग्य है. मेरा यह भी मानना है कि देश का जो भी साहित्य लिखा जाता है वह कहीं न कहीं उसके इतिहास का दस्तावेज होता है. हमारे प्राचीन शास्त्र भी यही कहते हैं कि नाट्य शास्त्र भी इतिहास की श्रेणी में रखा जाता है. नाट्य के जरिए हम अतीत की अनुकरणीय घटनाओं का उल्लेख करते हैं. मैंने इतिहास की जमीन नहीं छोड़ी है. इसमें भी मैं गाहे बगाहे इतिहास को छूते हुए निकल जाता हूं.
अपनी फिल्म जेड प्लस के बारे में कुछ बताएं.
जेड प्लस राजनैतिक व्यंग्य है. एक मिली-जुली साझा सरकार जो सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार से जूझ रही है. सरकार के घटक दल किसी भी समय समर्थन वापस लेने को तैयार बैठे हैं. और ऐसे समय में सरकार का एक सहयोगी दल एक ऐसे विचार के साथ सामने आता है जो बेहद दिलचस्प है. उसका दावा है कि सरकार अगर राजस्थान के फतेहपुर में पीपल वाले पीर की दरगाह पर चादर चढ़ाती हैं तो उसकी सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा. मरता क्या न करता की तर्ज पर प्रधानमंत्री पीपल वाले पीर की दरगाह पर चादर चढ़ाने को राजी हो जाते हैं. फतेहपुर पहुंचकर प्रधानमंत्री की मुलाकात एक पंक्चर वाले से होती है और उसके बाद एक प्रधानमंत्री और पंक्चरवाले के बीच बातचीत और घटनाओं की जो दिलचस्प कड़ी तैयार होती है वह राजनीति की विद्रूपताओं और उसके समाज से कटाव की कहानी को एक मनोरंजक अंदाज में रखती चली जाती है.
जेड प्लस राजनैतिक व्यंग्य है. एक मिली-जुली साझा सरकार जो सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार से जूझ रही है. सरकार के घटक दल किसी भी समय समर्थन वापस लेने को तैयार बैठे हैं. और ऐसे समय में सरकार का एक सहयोगी दल एक ऐसे विचार के साथ सामने आता है जो बेहद दिलचस्प है. उसका दावा है कि सरकार अगर राजस्थान के फतेहपुर में पीपल वाले पीर की दरगाह पर चादर चढ़ाती हैं तो उसकी सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा. मरता क्या न करता की तर्ज पर प्रधानमंत्री पीपल वाले पीर की दरगाह पर चादर चढ़ाने को राजी हो जाते हैं. फतेहपुर पहुंचकर प्रधानमंत्री की मुलाकात एक पंक्चर वाले से होती है और उसके बाद एक प्रधानमंत्री और पंक्चरवाले के बीच बातचीत और घटनाओं की जो दिलचस्प कड़ी तैयार होती है वह राजनीति की विद्रूपताओं और उसके समाज से कटाव की कहानी को एक मनोरंजक अंदाज में रखती चली जाती है.
हमारी राजनीति में जो भ्रष्टाचार, संप्रदायवाद या अवसरवाद जैसी
गहरी और बड़ी समस्याएं हैं उन्हें व्यंग्य जैसे हल्के माध्यम से कहना कितना
सही हैं. क्या व्यंग्य ही गंभीर चीजों को लोगों तक पहुंचाने का सबसे सफल
माध्यम है.
इसके कई कारण है. एक कारण यह है कि व्यंग्य पर हमारे यहां बहुत कम फिल्में बनी हैं. दूसरा राजनीति में आम जनता की रुचि नहीं है. समाज की जिन कड़वी सच्चाइयों की बात आप कर रहे हैं वह व्यक्ति अखबार टेलीविजन के जरिए हर दिन देखता रहता है. इसलिए जब वह थिएटर में जाता है तब उसे कुछ नया चाहिए होता है. और जब आप अपने कहने की शैली बदल देते हैं तो लोगों की रुचि बढ़ जाती है. हर दिन हमारे संपादकीयों में कड़े प्रहार होते हैं. शरद जोशी और हरिशंकर परसाईं इसीलिए सफल रहे क्योंकि उन्होंने एक अलग शैली में चोट की. उन शैलियों में अगर हास्य जुड़ जाए तो वह ज्यादा कारगर होता है. गंभीर बात को गंभीर तरीके से कहना तो आम बात है. लेकिन उसी गंभीर बात को हंसते-हंसते कह दिया जाए और आपका काम भी हो जाए तो यह किसी भी फिल्मकार की सबसे बड़ी सफलता है.
इसके कई कारण है. एक कारण यह है कि व्यंग्य पर हमारे यहां बहुत कम फिल्में बनी हैं. दूसरा राजनीति में आम जनता की रुचि नहीं है. समाज की जिन कड़वी सच्चाइयों की बात आप कर रहे हैं वह व्यक्ति अखबार टेलीविजन के जरिए हर दिन देखता रहता है. इसलिए जब वह थिएटर में जाता है तब उसे कुछ नया चाहिए होता है. और जब आप अपने कहने की शैली बदल देते हैं तो लोगों की रुचि बढ़ जाती है. हर दिन हमारे संपादकीयों में कड़े प्रहार होते हैं. शरद जोशी और हरिशंकर परसाईं इसीलिए सफल रहे क्योंकि उन्होंने एक अलग शैली में चोट की. उन शैलियों में अगर हास्य जुड़ जाए तो वह ज्यादा कारगर होता है. गंभीर बात को गंभीर तरीके से कहना तो आम बात है. लेकिन उसी गंभीर बात को हंसते-हंसते कह दिया जाए और आपका काम भी हो जाए तो यह किसी भी फिल्मकार की सबसे बड़ी सफलता है.
आपका अब तक का कामकाज देखें तो हम पाते हैं कि वह इतिहास और
साहित्य के साए में रहा है. प्राचीन भारतीय कथाएं भी आपको बहुत आकर्षित
करती हैं. चाणक्य से लेकर उपनिषद गंगा तक सारा कामकाज इसका सबूत है. आपने
एक बार महाभारत बनाने की कोशिश भी की थी. ऐसा क्यों हैं.
मुझे लगता है कि ये सारी कहानियां टाइम टेस्टेड हैं. समय ने इन कहानियों को अच्छी तरह से परख लिया है. नाट्य शास्त्र में इस बात को मजबूती से कहा गया की ऐसे चरित्र जिन्हें हम जीवन मंे देख सकें और जिनसे कुछ पा सकें, जो हमारे आस-पास का हो, तो वह लोगों को आसानी से समझ आ जाते हैं. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ईश्वर ने हमें दो आंखें आगे दी तीसरी आंख क्यों नहीं दी. क्या उसने गलती की. नहीं उसने गलती नहीं की है असल में हमारी तीसरी आंख हमारा इतिहास है. यह इतिहास की ताकत है. इतिहास हमें इतनी ताकत देता है कि हम वर्तमान की समस्याओं का उत्तर अपने अतीत में खोज सकते हैं. इसीलिए इतिहास मुझे आकर्षित करता है. अगर हम सांप्रदायिकता की बात करें तो मुझे लगता है कि हमने हमेशा इस मसले को कालीन के नीचे छुपाने का काम किया. कभी भी इस पर ईमानदारी से बात नहीं की. फिल्मों में भी हमने इस पर बहुत छिछले तरीके से चर्चाएं देखी हैं.
मुझे लगता है कि ये सारी कहानियां टाइम टेस्टेड हैं. समय ने इन कहानियों को अच्छी तरह से परख लिया है. नाट्य शास्त्र में इस बात को मजबूती से कहा गया की ऐसे चरित्र जिन्हें हम जीवन मंे देख सकें और जिनसे कुछ पा सकें, जो हमारे आस-पास का हो, तो वह लोगों को आसानी से समझ आ जाते हैं. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ईश्वर ने हमें दो आंखें आगे दी तीसरी आंख क्यों नहीं दी. क्या उसने गलती की. नहीं उसने गलती नहीं की है असल में हमारी तीसरी आंख हमारा इतिहास है. यह इतिहास की ताकत है. इतिहास हमें इतनी ताकत देता है कि हम वर्तमान की समस्याओं का उत्तर अपने अतीत में खोज सकते हैं. इसीलिए इतिहास मुझे आकर्षित करता है. अगर हम सांप्रदायिकता की बात करें तो मुझे लगता है कि हमने हमेशा इस मसले को कालीन के नीचे छुपाने का काम किया. कभी भी इस पर ईमानदारी से बात नहीं की. फिल्मों में भी हमने इस पर बहुत छिछले तरीके से चर्चाएं देखी हैं.
साहित्य और इतिहास पर फिल्म बनाने की परंपरा पश्चिमी फिल्मों
में बहुत गहरी और लंबी रही है. इसके विपरीत भारतीय फिल्म जगत में यह परंपरा
बहुत कमजोर दिखती है. आपको और एकाध और लोगों को छोड़ दें तो हमारे यहां
ऐसे नाम और फिल्में कम हैं.
बिल्कुल, इसका कारण यह है कि हमारा समाज ऐसा है कि इसको अक्सर शब्दों तक से आपत्ति हो जाती है. यहां जितनी ऐतिहासिक फिल्में बनती हैं उसको लेकर कोई न कोई विवाद हो जाता है. कल जो शब्द प्रचलित थे वे आज नहीं हैं. लोग थिएटरों पर पत्थरबाजी करते हैं. इससे निवेशक को लगता है कि वह चला था कुछ और करने हो कुछ और रहा है. इतिहास को लेकर हमारे यहां भय है. एक और गंभीर समस्या यह है कि हमें अपने इतिहास को लेकर गर्व नहीं है. उससे एक तरह का डिसकनेक्ट है. एक वजह यह भी है कि हमें ऐतिहासिक विषयों में बड़ी सफलताएं नहीं मिली हैं. पश्चिम में देखें तो उनकी ऐतिहासिक फिल्मों को बड़ी सफलताएं मिली हैं. क्लियोपेट्रा को देखें तो पहली को छोड़कर बाद में बनी दोनों फिल्मों को बड़ी सफलता मिली. तीसरी बार जो सीरीज बनी वह सर्वश्रेष्ठ थी. इस तरह के प्रोजेक्ट लगातार चल रहे हैं वहां. हमारे यहां ऐतिहासिक पात्रों को लेकर ज्यादा रुचि नहीं है. इसके अलावा एक कारण यह भी है कि इतिहास पर फिल्में बनाने में लंबा वक्त लगता है और काफी अध्ययन करना पड़ता है. लोगों को लगता है कि इतना समय लगाने के बाद विवाद हो तो इससे अच्छा है कि कम समय में कुछ और कर लिया जाए.
बिल्कुल, इसका कारण यह है कि हमारा समाज ऐसा है कि इसको अक्सर शब्दों तक से आपत्ति हो जाती है. यहां जितनी ऐतिहासिक फिल्में बनती हैं उसको लेकर कोई न कोई विवाद हो जाता है. कल जो शब्द प्रचलित थे वे आज नहीं हैं. लोग थिएटरों पर पत्थरबाजी करते हैं. इससे निवेशक को लगता है कि वह चला था कुछ और करने हो कुछ और रहा है. इतिहास को लेकर हमारे यहां भय है. एक और गंभीर समस्या यह है कि हमें अपने इतिहास को लेकर गर्व नहीं है. उससे एक तरह का डिसकनेक्ट है. एक वजह यह भी है कि हमें ऐतिहासिक विषयों में बड़ी सफलताएं नहीं मिली हैं. पश्चिम में देखें तो उनकी ऐतिहासिक फिल्मों को बड़ी सफलताएं मिली हैं. क्लियोपेट्रा को देखें तो पहली को छोड़कर बाद में बनी दोनों फिल्मों को बड़ी सफलता मिली. तीसरी बार जो सीरीज बनी वह सर्वश्रेष्ठ थी. इस तरह के प्रोजेक्ट लगातार चल रहे हैं वहां. हमारे यहां ऐतिहासिक पात्रों को लेकर ज्यादा रुचि नहीं है. इसके अलावा एक कारण यह भी है कि इतिहास पर फिल्में बनाने में लंबा वक्त लगता है और काफी अध्ययन करना पड़ता है. लोगों को लगता है कि इतना समय लगाने के बाद विवाद हो तो इससे अच्छा है कि कम समय में कुछ और कर लिया जाए.
आप अक्सर कहा करते हैं कि आपको विदेशी साहित्य और इतिहास की बजाय भारतीय कहानियां ज्यादा रास आती है.
मैं सारे बिंब भारतीय समाज से ढूंढ़ता हूं. मैं हमेशा कहता हूं कि मैं अपने दिमाग के द्वार हमेशा खुले रखता हूं. मैं सिनेमा कम देखता हूं. जब तक मुझे विचार प्रेरित नहीं करते तब तक मैं फिल्म नहीं बनाता हूं. अभी भी मैंने सिनेमा को जुनून के स्तर पर ही बनाए रखा है.
मैं सारे बिंब भारतीय समाज से ढूंढ़ता हूं. मैं हमेशा कहता हूं कि मैं अपने दिमाग के द्वार हमेशा खुले रखता हूं. मैं सिनेमा कम देखता हूं. जब तक मुझे विचार प्रेरित नहीं करते तब तक मैं फिल्म नहीं बनाता हूं. अभी भी मैंने सिनेमा को जुनून के स्तर पर ही बनाए रखा है.
आज से दस या बीस साल बाद जब हम मुड़कर देखेंगे और डॉ. चंद्र
प्रकाश द्विवेदी की समीक्षा करेंगे तब हम पाएंगे कि एक बड़े फिल्मकार के
हिस्से में कुल तीन-चार फिल्में ही दर्ज हैं. यह किसकी असफलता होगी?
कुछ हद तक यह मेरी असफलता है. और कुछ हद तक समाज ने इस तरह के काम को स्वीकार नहीं किया है. मैं ऐसे कई लोगों से मिला हूं जो चाणक्य को रिफरेंस के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. श्रीलंका में बुद्ध के ऊपर एक फिल्म बन रही थी तब उन्होंने चाणक्य को बार-बार देखा. इसी तरह से पिंजर का इस्तेमाल रिफरेंस के तौर पर लोग करते हैं. यह कम सफलता नहीं है
कुछ हद तक यह मेरी असफलता है. और कुछ हद तक समाज ने इस तरह के काम को स्वीकार नहीं किया है. मैं ऐसे कई लोगों से मिला हूं जो चाणक्य को रिफरेंस के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. श्रीलंका में बुद्ध के ऊपर एक फिल्म बन रही थी तब उन्होंने चाणक्य को बार-बार देखा. इसी तरह से पिंजर का इस्तेमाल रिफरेंस के तौर पर लोग करते हैं. यह कम सफलता नहीं है