तुम्हारे शहर में आए हैं हम, साहिर कहां हो तुम’
(दैनिक भास्कर के
रविवारीय परिशिष्ट रसरंग में 11 अप्रेल 2010 को
प्रकाशित)
राजकुमार केसवानी
इस दुनिया के दस्तूर
इस क़दर उलझे हुए हैं कि मैं ख़ुद को सुलझाने में अक्सर नाकाम हो जाता हूं. पता
नहीं क्या सही है और क्या ग़लत. ऐसे में जब-जब अपने फैसले ग़लत क़रार दे दिए जाते
हैं तो बस मुस्कराकर आस्मान की तरफ देख लेता हूं.
लेकिन आज के मसले को लेकर मैं आपकी तरफ भी देखना चाहता हूं. बात ऐसी है कि मैं पिछले बहुत दिनों से परेशान सा हूं. कोई दो महीने पहले एक ख़बर सुनी कि मुम्बई में जुहू स्थित कब्रिस्तान में बने मधुबाला, मोहम्मद रफी,नौशाद और साहिर लुधियानवी के मकबरों को मिटा दिया गया है. वजह थी हर रोज़ आने वाले जनाज़ों के दफ्न के लिए जगह की कमी.
कब्रिस्तान के रख-रखाव के ज़िमेदार लोगों का जवाब है कि इस्लामी कानून के तहत यह जायज़ है. दूसरे सरकार से बार-बार के तक़ादे के बावजूद पास ही ख़ाली पड़ी ज़मीन उन्हें अलाट नहीं की जा रही है.
अब आप ही बताइये अपनी ज़िन्दगी के इन सहारों के निशानात तक उजड़ जाने की शिकायत किससे करूं ?
आस्मान से ?
वो तो करके देख चुका हूं. वहां से तो जवाब में भी एक मुस्कराहट ही मिली है, जिसका मतलब पता नहीं मैने क्या समझा है और पता नहीं है क्या.
ख़ैर. जैसी उसकी मर्ज़ी. मेरे पास सिवाय सब्र के कोई रास्ता नहीं. बल्कि सब्र के साथ अपने हिस्से का काम करने के. सो करता हूं.
...जो ज़िन्दगी भर कम सोया
अब से कोई 75 बरस पहले एक बहादुर औरत अपने 13 साल के बच्चे के साथ अपने पतित और अत्याचारी पति का महलनुमा घर छोड़कर एक मामूली से मकान में रहने चली आई. यह घर रेल पटरी के पास था. जब कभी ट्रेन पटरी पर दौड़ती तो उसकी थरथराहट से सारा घर साथ ही कांपने लगता था. आसपास बसी कोयले बीनने वाली औरतों और दीगर मज़दूरी करने वालों की झुगियां भी इसके ज़द में आतीं.
यह सब मेरी इस उम्र से बहुत पहले की बात है लिहाज़ा मैं वहां मौजूद तो न था. लेकिन हां, अपने बाप के उस ठाठदार घर से बाहर निकलकर आए हुए उस 13 साल के बच्चे की हालत को लेकर तरह-तरह के क़यास लगाता रहा हूं. इनमें से एक हकीक़त के ज़्यादा करीब लगता है. ‘बच्चा डरकर मां से चिपट जाता था और ट्रेन की आवाज़ दूर तक ओझल हो जाने के बाद ख़ौफज़दा आंखों में ढेर सारे सवालों के साथ से मां को निहारता था’.
यह मुझे इसलिए ठीक लगता है कि जब इस बच्चे ने आगे चलकर अपनी उम्र में कामयाबी हासिल की. दौलत कमाई. महल बनाए. शोहरत की बुलन्दी पर बैठा रहा, तब भी उसने अपनी मां का दामन न छोड़ा. और जब मां ने एक दिन दामन छुड़ा ही लिया तो उसने भी इस दुनिया से किनारा करने में बहुत देर नहीं की.
इस बच्चे का जब जन्म हुआ था तो बाप ने नाम रखा था अब्दुल हई. ख़ुद ने होश सम्हाला तो उसने अब्दुल हई होने की जगह ख़ुद को ‘साहिर’ बना लिया. साहिर मतलब जादूगर. लुधियाना का यह ‘साहिर’ शब्दों का जादूगर था. और ऐसा जादूगर कि उसका जादू आज भी ज़माने के सर चढ़कर बोलता है. ऐसे में ही ज़बान से निकल जाता है : वाह! साहिर लुधियानवी, वाह!’.
एक मिनट. मुझे लगता है कि अब ज़रा इस बात को एकदम पहले सिरे से ही शुरू करूं. तो बात ऐसी है कि लुधियाना के अमीर ज़मींदार थे फज़ल दीन. बहुत ही ऐयाश और ज़ालिम तबीयत इंसान. 8 मार्च 1921 को उनकी पत्नी सरदार बेगम ने एक बच्चे को जन्म दिया. जब उन्हें मालूम हुआ कि उनके घर में बेटे की आमद हुई है तो वह बहुत ख़ुश हुए. यह ख़ुशी हर मां-बाप को होने वाली ख़ुशी से कुछ अलग थी.
किस्सा यूं है कि फज़ल दीन का अब्दुल हई नाम के एक व्यक्ति से ज़बर्दस्त दुश्मनी थी. वह व्यक्ति पंजाब का एक बहुत ही ताकतवर नेता था, जो पड़ोस में ही रहता था.फज़ल दीन उसको मिटा देना चाहता था लेकिन उसका बस न चलता था. सो बेटे की ख़बर मिली तो उसने फौरन उसका नाम रख दिया अब्दुल हई. इसके बाद हर कभी अपने ही बेटे को ऊंची आवाज़ में, पड़ौसी को सुनाकर, पंजाबी की मोटी-मोटी गालियां देता और ख़ुश होता कि उसने अपने दुश्मन को ज़लील कर लिया.
ऐसे ज़ालिम और क्रूर इंसान के साथ सरदारी बेगम का निबाह भी कितने दिन होना था ? ख़ासकर तब जब वह आए दिन शादियां करने का शौक़ रखता हो. फज़ल दीन ने कुल मिलाकर 14 शादियां कीं. सो आख़िर एक दिन तलाक़ लेकर सरदार बेगम अपने बच्चे के साथ घर छोड़ आई.
हई, फज़ल दीन का इकलौता बेटा था, सो उसका जाना उसे मंज़ूर न था. जब अदालत ने फैसला मां के पक्ष में दिया तो उसने बच्चे को ज़बर्दस्ती छीनने और नाकाम होने पर बच्चे को मार डालने तक का ऐलान कर दिया. ऐसे में उस लाचार मगर मज़बूत इरादे वाली मां सरदारी बेगम ने अपने बच्चे को किसी घड़ी अकेले न रहने दिया.
मैं इस जगह आपसे अपनी तरफ से एक बात कहना चाहता हूं. इस सारे घटनाक्रम और हालात पर ज़रा ग़ौर करें और सोचें इस वक़्त उस बच्चे के दिल-दिमाग़ पर किस तरह के असर पड़ रहे होंगे. हर वक़्त ख़ौफ और दहशत के साए में जीने वाला यह बच्चा बड़ा होकर किस मनोविज्ञान का मरीज़ होगा ?
इसका जवाब उन सब लोगों के पास मौजूद है जिन्होने साहिर को उसकी कामयाबी के दौर में देखा. वे कभी अकेले बाहर नहीं जाते थे. कभी सरदार जाफरी तो कभी जां निसार अख़्तर. मगर किसी न किसी का साथ होना ज़रूरी था. वरना घर पर ही ‘मां जी’ के पास रहना पसन्द करते.
चलिए. यह तो हम थोड़ा कहानी की उस हद से बाहर चले आए. हम तो अभी साहिर के उस मुश्किल उम्र की बात कर रहे थे जब उसके अन्दर के शायर ने पहली बार अन्दर से आवाज़ दी तो नज़्म की सूरत में लफ्ज़ निकले – ‘कसम उन तंग गलियों की जहां मज़दूर रहते हैं’.
भूख,ग़रीबी,लाचारी से भरी इन्हीं तंग गलियों से निकल कर साहिर लुधियाना के खालसा हाई स्कूल और फिर गवर्नमेंट कालेज में तालीम हासिल करते रहे. जिस्म के साथ तमनाएं भी जवान होती चली गईं. शायर थे सो अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के नाम से लड़कियों में ख़ासे पापुलर थे.
इस अहसास के साथ कौन होगा जिस पर आशिक़ी का रंग न चढ़े. सो चढ़ा. और ख़ूब चढ़ा. ख़ूब इश्क़ हुए. पहले पहल प्रेम चौधरी. जिसके बाप शायद काफी ऊंचे ओहदे पर थे और उन्हें यह रिश्ता मज़ूर न था. दिल टूटा. बाद को प्रेम चौधरी की भरी जवानी में ही मौत हो गई. दिल पर एक और चोट हुई. उसी की याद में साहिर ने नज़्म लिखी ‘मरघट’.
फिर आई, लाहौर की ईशर कौर. दोनो का बहुत वक़्त साथ गुज़रा. फिर साहिर 1949 में बम्बई चले गए तो ईशर कौर वहां भी जा पहुंची, मगर साहिर शादी का फैसला न कर सके. उसके बाद अमृता प्रीतम. यहां भी इज़हारे-इश्क़ अमृता जी की तरफ से ही मज़बूती से होता रहा.
उसके बाद तो न जाने कितने नाम हैं. लेकिन एक मामला ऐसा भी था जिसमें बात मंगनी और शादी तक पहुंच गई थी. बकौल उनके बचपन के एक दोस्त, पाकिस्तान के मशहूर कालम नवीस हमीद अख़्तर, साहिर की मंगनी उर्दू की कहानीकार हाजरा मसरूर से हो गई थी. मां से इजाज़त लेने के लिए भी इसी दोस्त को आगे किया. मां ने भी अपनी मंज़ूरी दे दी. मगर फिर न जाने क्या हुआ और साहिर ने अपना इरादा बदल दिया.
अगर इश्क़-ओ-मोहब्बत में ये आलम था तो ज़िन्दगी के बाकी कामों में भी हालात इससे बेहतर न थे. बड़े से बड़े और मामूली से मामूली फैसलों में भी अटक जाते और किसी दोस्त की मदद दरकार होती.
1943 में साहिर अपनी शायरी का पहला संकलन ‘तल्ख़ियां’ छपवाने लाहौर जा पहुंचे थे. ‘तल्ख़ियां’ के छपने में दो साल लग गए. इसी बीच वे बतौर सम्पादक उर्दू पत्रिका ‘अदबे-लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ के लिए काम करते रहे. बंटवारे के वक़्त भी वे पहले लाहौर में ही रहे. ‘सवेरा’ में अपनी तल्ख़ कलम से पाकिस्तान सरकार को इस क़दर नाराज़ कर दिया कि उनके ख़िलाफ गिरफतारी वारंट जारी हो हो गया.
साहिर लाहौर छोड़कर दिल्ली आ गए. और फिर अपने ख़्वाब को हक़ीक़त में बदलने बम्बई जा पहुंचे. उनका ख़्वाब था फिल्मों में गीत लिखना. और सिर्फ गीत लिखना ही नहीं सबसे आला किस्म के गीत लिखना.
बम्बई और ख़ासकर बम्बई की फिल्मी दुनिया यूं तो हज़ारों संगदिली की दास्तानों की खान है लेकिन हर कहानी का अंजाम इस दुनिया में न हुआ है और न होगा. सो साहिर की कहानी काफी ख़ुशगवार कहानी है. 1948 में एक फिल्म बनी थी ‘आज़ादी की राह पर’. इस फिल्म में साहिर के 4 गीत थे. पहला गीत था ‘ बदल रही है ज़िन्दगी, बदल रही है ज़िन्दगी’.
1951 में ए.आर.कारदार की फिल्म ‘नौजवान’ में संगीतकार एस.डी.बर्मन ने उन्हें पूरी फिल्म लिखने का मौका दिया. नतीजा है आज तक सदाबहार गीतों में शामिल लत्ता मंगेशकर ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आएं ‘.
1945 में ‘तल्ख़ियां’ के प्रकाशन ने साहिर को बतौर शायर काफी ऊंचा रुतबा दे दिया था. बम्बई पहुंचे तो गीतकार प्रेम धवन जो पहले से फिल्मों में जमे हुए थे, साहिर के मददगार बनकर सामने आ गए. साहिर कोई चार महीने तक प्रेम धवन के घर पर टिके रहे. इधर प्रेम धवन साहिर का संग्रह ‘तल्ख़ियां’ लेकर निर्माताओं और संगीतकारों को मौका देने की सिफारिश करते रहे. इसी कोशिश का नतीजा था फिल्म ‘दोराहा’ में साहिर का इकलौता गीत ‘मोहब्बत तर्क की मैने गिरेबां सी लिया मैने / ज़माने अब तो ख़ुस हो ज़हर ये भी पी लिया मैने’(तलत महमूद). इस फिल्म के बाकी सारे गीत प्रेम धवन पहले ही लिख चुके थे.
अब इसके बाद तो साहिर ने क्या किया, यह तो इतिहास है. कभी न भुलाया जा सकने वाला इतिहास. अगली बार उसी इतिहास के साथ याद करेंगे साहिर की ख़ूबसूरत शायरे से भरे गीतों को.
और…
और यह कि ऊपर जो लाईन आपने पढ़ी वो कैफी आज़मी जी ने साहिर साहब की मौत पर लिखी उनकी ग़ज़ल का मतला है.
तुम्हारे शहर में आए हैं हम, साहिर तुम कहां हो ?
ये रूह-पोशी तुम्हारी है सितम, साहिर कहां हो तुम ?
लेकिन आज के मसले को लेकर मैं आपकी तरफ भी देखना चाहता हूं. बात ऐसी है कि मैं पिछले बहुत दिनों से परेशान सा हूं. कोई दो महीने पहले एक ख़बर सुनी कि मुम्बई में जुहू स्थित कब्रिस्तान में बने मधुबाला, मोहम्मद रफी,नौशाद और साहिर लुधियानवी के मकबरों को मिटा दिया गया है. वजह थी हर रोज़ आने वाले जनाज़ों के दफ्न के लिए जगह की कमी.
कब्रिस्तान के रख-रखाव के ज़िमेदार लोगों का जवाब है कि इस्लामी कानून के तहत यह जायज़ है. दूसरे सरकार से बार-बार के तक़ादे के बावजूद पास ही ख़ाली पड़ी ज़मीन उन्हें अलाट नहीं की जा रही है.
अब आप ही बताइये अपनी ज़िन्दगी के इन सहारों के निशानात तक उजड़ जाने की शिकायत किससे करूं ?
आस्मान से ?
वो तो करके देख चुका हूं. वहां से तो जवाब में भी एक मुस्कराहट ही मिली है, जिसका मतलब पता नहीं मैने क्या समझा है और पता नहीं है क्या.
ख़ैर. जैसी उसकी मर्ज़ी. मेरे पास सिवाय सब्र के कोई रास्ता नहीं. बल्कि सब्र के साथ अपने हिस्से का काम करने के. सो करता हूं.
...जो ज़िन्दगी भर कम सोया
अब से कोई 75 बरस पहले एक बहादुर औरत अपने 13 साल के बच्चे के साथ अपने पतित और अत्याचारी पति का महलनुमा घर छोड़कर एक मामूली से मकान में रहने चली आई. यह घर रेल पटरी के पास था. जब कभी ट्रेन पटरी पर दौड़ती तो उसकी थरथराहट से सारा घर साथ ही कांपने लगता था. आसपास बसी कोयले बीनने वाली औरतों और दीगर मज़दूरी करने वालों की झुगियां भी इसके ज़द में आतीं.
यह सब मेरी इस उम्र से बहुत पहले की बात है लिहाज़ा मैं वहां मौजूद तो न था. लेकिन हां, अपने बाप के उस ठाठदार घर से बाहर निकलकर आए हुए उस 13 साल के बच्चे की हालत को लेकर तरह-तरह के क़यास लगाता रहा हूं. इनमें से एक हकीक़त के ज़्यादा करीब लगता है. ‘बच्चा डरकर मां से चिपट जाता था और ट्रेन की आवाज़ दूर तक ओझल हो जाने के बाद ख़ौफज़दा आंखों में ढेर सारे सवालों के साथ से मां को निहारता था’.
यह मुझे इसलिए ठीक लगता है कि जब इस बच्चे ने आगे चलकर अपनी उम्र में कामयाबी हासिल की. दौलत कमाई. महल बनाए. शोहरत की बुलन्दी पर बैठा रहा, तब भी उसने अपनी मां का दामन न छोड़ा. और जब मां ने एक दिन दामन छुड़ा ही लिया तो उसने भी इस दुनिया से किनारा करने में बहुत देर नहीं की.
इस बच्चे का जब जन्म हुआ था तो बाप ने नाम रखा था अब्दुल हई. ख़ुद ने होश सम्हाला तो उसने अब्दुल हई होने की जगह ख़ुद को ‘साहिर’ बना लिया. साहिर मतलब जादूगर. लुधियाना का यह ‘साहिर’ शब्दों का जादूगर था. और ऐसा जादूगर कि उसका जादू आज भी ज़माने के सर चढ़कर बोलता है. ऐसे में ही ज़बान से निकल जाता है : वाह! साहिर लुधियानवी, वाह!’.
एक मिनट. मुझे लगता है कि अब ज़रा इस बात को एकदम पहले सिरे से ही शुरू करूं. तो बात ऐसी है कि लुधियाना के अमीर ज़मींदार थे फज़ल दीन. बहुत ही ऐयाश और ज़ालिम तबीयत इंसान. 8 मार्च 1921 को उनकी पत्नी सरदार बेगम ने एक बच्चे को जन्म दिया. जब उन्हें मालूम हुआ कि उनके घर में बेटे की आमद हुई है तो वह बहुत ख़ुश हुए. यह ख़ुशी हर मां-बाप को होने वाली ख़ुशी से कुछ अलग थी.
किस्सा यूं है कि फज़ल दीन का अब्दुल हई नाम के एक व्यक्ति से ज़बर्दस्त दुश्मनी थी. वह व्यक्ति पंजाब का एक बहुत ही ताकतवर नेता था, जो पड़ोस में ही रहता था.फज़ल दीन उसको मिटा देना चाहता था लेकिन उसका बस न चलता था. सो बेटे की ख़बर मिली तो उसने फौरन उसका नाम रख दिया अब्दुल हई. इसके बाद हर कभी अपने ही बेटे को ऊंची आवाज़ में, पड़ौसी को सुनाकर, पंजाबी की मोटी-मोटी गालियां देता और ख़ुश होता कि उसने अपने दुश्मन को ज़लील कर लिया.
ऐसे ज़ालिम और क्रूर इंसान के साथ सरदारी बेगम का निबाह भी कितने दिन होना था ? ख़ासकर तब जब वह आए दिन शादियां करने का शौक़ रखता हो. फज़ल दीन ने कुल मिलाकर 14 शादियां कीं. सो आख़िर एक दिन तलाक़ लेकर सरदार बेगम अपने बच्चे के साथ घर छोड़ आई.
हई, फज़ल दीन का इकलौता बेटा था, सो उसका जाना उसे मंज़ूर न था. जब अदालत ने फैसला मां के पक्ष में दिया तो उसने बच्चे को ज़बर्दस्ती छीनने और नाकाम होने पर बच्चे को मार डालने तक का ऐलान कर दिया. ऐसे में उस लाचार मगर मज़बूत इरादे वाली मां सरदारी बेगम ने अपने बच्चे को किसी घड़ी अकेले न रहने दिया.
मैं इस जगह आपसे अपनी तरफ से एक बात कहना चाहता हूं. इस सारे घटनाक्रम और हालात पर ज़रा ग़ौर करें और सोचें इस वक़्त उस बच्चे के दिल-दिमाग़ पर किस तरह के असर पड़ रहे होंगे. हर वक़्त ख़ौफ और दहशत के साए में जीने वाला यह बच्चा बड़ा होकर किस मनोविज्ञान का मरीज़ होगा ?
इसका जवाब उन सब लोगों के पास मौजूद है जिन्होने साहिर को उसकी कामयाबी के दौर में देखा. वे कभी अकेले बाहर नहीं जाते थे. कभी सरदार जाफरी तो कभी जां निसार अख़्तर. मगर किसी न किसी का साथ होना ज़रूरी था. वरना घर पर ही ‘मां जी’ के पास रहना पसन्द करते.
चलिए. यह तो हम थोड़ा कहानी की उस हद से बाहर चले आए. हम तो अभी साहिर के उस मुश्किल उम्र की बात कर रहे थे जब उसके अन्दर के शायर ने पहली बार अन्दर से आवाज़ दी तो नज़्म की सूरत में लफ्ज़ निकले – ‘कसम उन तंग गलियों की जहां मज़दूर रहते हैं’.
भूख,ग़रीबी,लाचारी से भरी इन्हीं तंग गलियों से निकल कर साहिर लुधियाना के खालसा हाई स्कूल और फिर गवर्नमेंट कालेज में तालीम हासिल करते रहे. जिस्म के साथ तमनाएं भी जवान होती चली गईं. शायर थे सो अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के नाम से लड़कियों में ख़ासे पापुलर थे.
इस अहसास के साथ कौन होगा जिस पर आशिक़ी का रंग न चढ़े. सो चढ़ा. और ख़ूब चढ़ा. ख़ूब इश्क़ हुए. पहले पहल प्रेम चौधरी. जिसके बाप शायद काफी ऊंचे ओहदे पर थे और उन्हें यह रिश्ता मज़ूर न था. दिल टूटा. बाद को प्रेम चौधरी की भरी जवानी में ही मौत हो गई. दिल पर एक और चोट हुई. उसी की याद में साहिर ने नज़्म लिखी ‘मरघट’.
फिर आई, लाहौर की ईशर कौर. दोनो का बहुत वक़्त साथ गुज़रा. फिर साहिर 1949 में बम्बई चले गए तो ईशर कौर वहां भी जा पहुंची, मगर साहिर शादी का फैसला न कर सके. उसके बाद अमृता प्रीतम. यहां भी इज़हारे-इश्क़ अमृता जी की तरफ से ही मज़बूती से होता रहा.
उसके बाद तो न जाने कितने नाम हैं. लेकिन एक मामला ऐसा भी था जिसमें बात मंगनी और शादी तक पहुंच गई थी. बकौल उनके बचपन के एक दोस्त, पाकिस्तान के मशहूर कालम नवीस हमीद अख़्तर, साहिर की मंगनी उर्दू की कहानीकार हाजरा मसरूर से हो गई थी. मां से इजाज़त लेने के लिए भी इसी दोस्त को आगे किया. मां ने भी अपनी मंज़ूरी दे दी. मगर फिर न जाने क्या हुआ और साहिर ने अपना इरादा बदल दिया.
अगर इश्क़-ओ-मोहब्बत में ये आलम था तो ज़िन्दगी के बाकी कामों में भी हालात इससे बेहतर न थे. बड़े से बड़े और मामूली से मामूली फैसलों में भी अटक जाते और किसी दोस्त की मदद दरकार होती.
1943 में साहिर अपनी शायरी का पहला संकलन ‘तल्ख़ियां’ छपवाने लाहौर जा पहुंचे थे. ‘तल्ख़ियां’ के छपने में दो साल लग गए. इसी बीच वे बतौर सम्पादक उर्दू पत्रिका ‘अदबे-लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ के लिए काम करते रहे. बंटवारे के वक़्त भी वे पहले लाहौर में ही रहे. ‘सवेरा’ में अपनी तल्ख़ कलम से पाकिस्तान सरकार को इस क़दर नाराज़ कर दिया कि उनके ख़िलाफ गिरफतारी वारंट जारी हो हो गया.
साहिर लाहौर छोड़कर दिल्ली आ गए. और फिर अपने ख़्वाब को हक़ीक़त में बदलने बम्बई जा पहुंचे. उनका ख़्वाब था फिल्मों में गीत लिखना. और सिर्फ गीत लिखना ही नहीं सबसे आला किस्म के गीत लिखना.
बम्बई और ख़ासकर बम्बई की फिल्मी दुनिया यूं तो हज़ारों संगदिली की दास्तानों की खान है लेकिन हर कहानी का अंजाम इस दुनिया में न हुआ है और न होगा. सो साहिर की कहानी काफी ख़ुशगवार कहानी है. 1948 में एक फिल्म बनी थी ‘आज़ादी की राह पर’. इस फिल्म में साहिर के 4 गीत थे. पहला गीत था ‘ बदल रही है ज़िन्दगी, बदल रही है ज़िन्दगी’.
1951 में ए.आर.कारदार की फिल्म ‘नौजवान’ में संगीतकार एस.डी.बर्मन ने उन्हें पूरी फिल्म लिखने का मौका दिया. नतीजा है आज तक सदाबहार गीतों में शामिल लत्ता मंगेशकर ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आएं ‘.
1945 में ‘तल्ख़ियां’ के प्रकाशन ने साहिर को बतौर शायर काफी ऊंचा रुतबा दे दिया था. बम्बई पहुंचे तो गीतकार प्रेम धवन जो पहले से फिल्मों में जमे हुए थे, साहिर के मददगार बनकर सामने आ गए. साहिर कोई चार महीने तक प्रेम धवन के घर पर टिके रहे. इधर प्रेम धवन साहिर का संग्रह ‘तल्ख़ियां’ लेकर निर्माताओं और संगीतकारों को मौका देने की सिफारिश करते रहे. इसी कोशिश का नतीजा था फिल्म ‘दोराहा’ में साहिर का इकलौता गीत ‘मोहब्बत तर्क की मैने गिरेबां सी लिया मैने / ज़माने अब तो ख़ुस हो ज़हर ये भी पी लिया मैने’(तलत महमूद). इस फिल्म के बाकी सारे गीत प्रेम धवन पहले ही लिख चुके थे.
अब इसके बाद तो साहिर ने क्या किया, यह तो इतिहास है. कभी न भुलाया जा सकने वाला इतिहास. अगली बार उसी इतिहास के साथ याद करेंगे साहिर की ख़ूबसूरत शायरे से भरे गीतों को.
और…
और यह कि ऊपर जो लाईन आपने पढ़ी वो कैफी आज़मी जी ने साहिर साहब की मौत पर लिखी उनकी ग़ज़ल का मतला है.
तुम्हारे शहर में आए हैं हम, साहिर तुम कहां हो ?
ये रूह-पोशी तुम्हारी है सितम, साहिर कहां हो तुम ?
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आज फिर मौका है कि अपने एक राज़ को आपके साथ बांटकर बात शुरू करूं. वो राज़ यह है कि दिल इस ख़याल भर से उदास है कि आज आख़िरी बार साहिर की बात करनी है. यह जानते हुए भी कि इस आख़िरी का मतलब शायद बिल्कुल आख़िरी नहीं है फिर भी दिल तो दिल है. बकौल ग़ालिब ‘ दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यों / रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमे सताए क्यों’. पिछले दो दिन से लगातार 78 आर.पी.एम. का एक रिकार्ड सुने जा रहा हूं. साहिर की आवाज़ में साहिर की शायरी. एक तरफ ‘कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है’ और दूसरी तरफ ‘मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझको’. एच.एम.वी. ने जिस ज़माने में इसे रिलीज़ किया था उस वक़्त इसकी कीमत चंद रुपए थी, आज यह बेशकीमती है. आप कभी आज़मा कर देखें, अपने किसी अज़ीज़ की आवाज़ को उसकी ग़ैर-मौजूदगी में किसी टेप, किसी सी.डी. पर सुन लें. आपको लगेगा, वो अपना यहीं मौजूद है. आप उससे बात करने लगेंगे. बात हो भी जाएगी. ये मेरा आज़माया हुआ नुस्ख़ा है. अब जैसे दो दिन से मैं इसी फार्मूले से साहिर साहब से बात कर रहा हूं. आप सब की तरफ से बात कर रहा हूं, सो उसे सुनाना भी तो आप ही को है. ‘साहिर साहब, मैं आपसे नाराज़ हूं. आपके नाम का मतलब अगर जादूगर हुआ तो क्या आप जब चाहे आवाज़ बन जाएंगे ? जब चाहे सिर्फ एक ख़ामोश तस्वीर हो जाएंगे ? जब जी चाहेगा, मर जाएंगे ?’ ‘मैं ज़िन्दा हूं यह मुश्तहर कीजिए / मेरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए’. ये क्या ? मैने सवाल आवाज़ से किया था और जवाब किताब से आया ! इस दुनिया का यही कमाल है. सवाल कभी अकेले पैदा नहीं होते, जवाब भी उनके साथ ही पैदा होते हैं. इतना ज़रूर होता है कि पैदा होती ही दोनो को कोई अलग-अलग जगह छुपा देता है. इन दोनो के बीच फासला सिर्फ सच का होता है. सवाल करने वाले की आवाज़ में ज़रा सच्चाई हुई तो जवाब इस कायनात के किसी भी ज़र्रे से आवाज़ बनकर सामने आ जाता है. मगर होता अक्सर ऐसा है कि हम जवाब की उम्मीद में अपने कान उसी दिशा में लगा लेते हैं जिधर मुंह करके सवाल किया होता है. नतीजा – जवाब, कई बार, अपनी पूरी आवाज़ के साथ भी एक सवाल भर रह जाता है. ख़ैर! मेरे सवाल का जवाब तो मुझे मिल गया है. साहिर ज़िन्दा हैं. साहिर के ‘क़ातिलों’ को ख़बर रहे. सच कहूं तो पिछले चार हफ्ते में आप सबने भी जितनी ज़ोर से अपनी आवाज़ बुलन्द करके मुझे यह ख़बर दी है उसके बाद मैं बेहद मुतमईन हूं कि ज़िन्दगी ने भले साहिर से धोखा किया हो लेकिन वक़्त आज भी उसी के साथ है. सच मानिए ज़िन्दगी ने साहिर के साथ बड़ा ज़लील धोखा किया. वो तो जीना चाहता था. पंजाबी के अज़ीम शायर शिवकुमार बटालवी की भरी जवानी में मौत की ख़बर सुनकर साहिर ने कहा था ‘ …वो शिव, फूल बन गया होगा या तारा. हम जो मरेंगे तो करेले का फूल ही बनेंगे. क्योंकि जवानी में तो हम मरने वाले नहीं’. अब कोई बताए कि आख़िर साहिर से अज़ीमो-शान शायर के लिए महज़ 59 साल की उम्र, जवानी में मौत नहीं तो क्या है ? लेकिन इतना तय है कि साहिर जब तक जिए , ख़ूब जिए. जितना ख़ुद के लिए जिए, उससे कहीं ज़्यादा समाज के लिए जिए. अपने लिए बस शामें सजाईं. ज़माने को अपनी शायरे दी. ऐसी शायरी जो नौजवानी के अरमानों की बात करती है. ऐसी शायरी जो ज़माने की ख़ुशियों से महरूम लोगों के हक़ की बात करती है. शायरी जो औरत को ख़ुदा का दर्जा देती है. ज़रा ग़ौर फरमाएं, साहिर जब अपनी बात करते हैं तो कहते हैं ‘मैं पल दो पल का शायर हूं’ अपने दुनियावी व्यवहार में भले ही अखड़पन और अहंकार दिखाते हों लेकिन जब शायर बनकर अपनी बात करते तो कहते ‘मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी कहानी है’ यहां ख़ुदनुमाई से इतनी दूरी कि उनकी ग़ज़लों के मक़्ते में आपको शायद ही कभी उनका तखल्लुस ‘साहिर’ मिले. दिमाग़ में चाहे जितनी दौलत की गर्मी रहे लेकिन दिल इंसानी अहसास से इस क़दर लबरेज़ कि छलक-छलक पड़ता था. इसकी एक मिसाल निदा फाज़ली के एक किस्से से बख़ूबी समझ आती है. यह उस दौर की बात है जब निदा बम्बई में स्ट्र्गल कर रहे थे. ‘…अक्सर मेरी रातें जांनिसार अख़्तर के घर या साहिर लुधियानवी की ‘परछाइयां’ में बीततीं. साहिर साहब शाही मिजाज़ के आदमी थे. उनकी यह शहंशाहियत उन्हें विरासत में मिली थी… (वहां) बड़िया खानो व महंगी शराबों का लुत्फ उठाता था. …एक रात शायद मुझे नशा ज़्यादा हो गया था, और उस नशे में मैं प्रेक्टीकल होने के बजाय किताबी ज़्यादा हो गया था’. निदा साहब ने नशे की उसी झोंक में साहिर के सामने ही साहिर की शायरी के मुकाबले फिराक़ गोरखपुरी और फैज़ अहमद ‘फैज़’ की तारीफ कर दी. नाराज़ होकर साहिर ने निदा को दस-बीस सुनाई और बाहर निकल जाने का हुक्म दे दिया. इस बीच साहिर की मां भी बाहर निकल आईं थी. अब मैं फिर से निदा को ही कोट कर रहा हूं, बस ज़रा ग़ौर से सब कुछ देखिएगा और तय कीजिएगा. “मां जी, देखा. मैने इसकी हालत पर तरस खाया और नतीजे में यह पाया. मेरे सामने ही मेरी बुराई कर रहा है’ दूसरों की तारीफ को वह अपनी बुराई मानते थे. मैं मेज़ से उठकर दरवाज़े की तरफ बढ़ा ही था कि देखा, साहिर मेरे कन्धे पर हाथ रखकर कह रहे हैं, ‘नौजवान, इतनी रात को जा रहे हो…खाना नहीं खा रहे हो, तो ये रुपए रख लो.’ वह मुझे कुछ देना चाहते थे लेकिन मैने नहीं लिया और तेज़ क़दमों से नीचे उतर आया”. ऐसा था बच्चों की तरह रूठ जाने वाला और इंसानों की तरह इंसानों की सोचने वाला साहिर लुधियानवी. आस्मां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम साहिर ने लिखा था ‘ आस्मां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम / आजकल वो इस तरफ देखता है कम’(फिर सुबह होगी). मुझे यकीन है कि हम सब इस बात को तहे-दिल से मानते हैं. मैं इसे न सिर्फ मानता हूं बल्कि इस बात पर मेरा ‘उससे’ झगड़ा भी है. आख़िर को जिस ज़मीन पर हमें भेज दिया वहां किसी तरह का इंसाफ की पाबंदी वाला एक निज़ाम तो हो. अगर ये मुमकिन नहीं तो फिर ये जहां क्यों हो ? साहिर ने तमाम उम्र इसी नाइंसाफी, ग़ैर बराबरी, वहशत और दहशत के ख़िलाफ आवाज़ बुलन्द की. संगीतकार ख़य्याम, जिनके साथ साहिर ने ‘फिर सुबह होगी’, ‘कभी-कभी’ और ‘शगुन’ जैसी फिल्में की, कहते हैं – ‘क्या हम इस बात की कल्पना भी कर सकते है कि साहिर के अलावा किसी दिन, किसी गीत में ‘ मैं देखूं तो सही दुनिया तुम्हे कैसे सताती है / कोई दिन के लिए, अपनी निगहबानी मुझे दे दो’(शगुन) जैसी बात कोई दूसरा कह सकेगा ? यह बात इसलिए ज़्यादा मह्त्वपूर्ण है क्योंकि यह बात नायक से उसकी प्रेमिका कह रही है. वह भी उस दौर में जिस दौर में औरत को ‘अबला’ की पहचान दी गई थी. लेकिन साहिर की ‘अबला’ ज़माने को चुनौती देती है कि उसकी निगहबानी में मुश्किल में फंसे ‘मर्द’ को छूकर दिखा दे. इन्ही वजहों से यश चौपड़ा जैसे फिल्मकार कहते हैं कि ‘साहिर के गीतों से पूरी फिल्म का मय्यार ऊंचा हो जाता था’. यही वजह थी कि बी.आर.चौपड़ा की लगभग सारी फिल्मों के गीतकार साहिर ही रहे, भले ही संगीतकार एन.दत्ता हों, ओ.पी.नैयर हो या फिर रवि. यश जी ने तो अपनी फिल्म ‘कभी कभी’ (76) में साहिर के गीतों के सहारे बना ली लेकिन 1980 में साहिर की मौत के बाद भी वो उनके दिलो-दिमाग से परे न हुए.सो 1998 में उन्होने साहिर की ज़िन्दगी पर एक फिल्म बनाने का इरादा ज़ाहिर किया था. फिल्म में अमिताभ बच्चन को साहिर की भूमिका, शबाना आज़मी को अमृता प्रीतम की भूमिका के लिए चुन भी लिया था और इस त्रिकोण की दूसरी नायिका का चयन के लिए कई नाम थे. इस दूसरी नायिका का चरित्र गायिका सुधा मल्होत्रा पर आधारित था. अब मैं आता हूं उस ऊपर वाली बात पर वापस कि ‘…आजकल वो इस तरफ देखता है कम’. उसने साहिर को फन और कामयाबी दोनो दिए लेकिन उसके बदले में उससे क्या-क्या न छीना गया. बचपन में बाप का साया. जवानी में दर्जन भर नाकाम इश्क़ और तन्हाई. तन्हा-तन्हा सांसों के साथ मां का आंचल थामे-थामे जीते रहे. 1978 में मां के देहांत के बाद साहिर टूट गए. इसी के बाद उन्हें पहली बार हार्ट अटैक हुआ. दो साल बाद वे अपने टूटे हुए दिल के साथ ख़ुद भी इस दुनिया को अलविदा कह चले. गोया कि जीते जी हुए ज़ुल्म काफी न थे, सो मरने के बाद भी यह सिलसिला बना हुआ है. 1970 में उन्होने बेहद शौक़ से एक विशाल घर बनाया था, जिसका नाम है ‘परछाइयां’. इस नाम की उनकी एक बेहद ख़ूबसूरत नज़्म भी है. आज उस घर का कोई वारिस नहीं है सो कई लोगों ने उस पर कब्ज़ा जमा रखा है. साहिर के उस ड्राइंग रूम में जहां हर शाम बेहतरीन स्काच और लज़ीज़ ख़ानों की दावतें होती थीं, कुछ बिल्डरों की निगाह में है. सैंकड़ों अप्रकाशित गीत, ग़ज़ल रद्दी में तुलकर बिक चुके हैं. मौत के बाद उन्हें जुहू के कब्रिस्तान में एक जगह मिली थी वह भी अब बुलडोज़रों की ज़द में आकर मिट चुकी है. साहिर के लिए यह नया नहीं है. 1947 के बंटवारे के बाद साहिर मां की वजह से लाहौर में रुक गए थे. उस समय वे पत्रिका ‘सवेरा के सम्पादक थे. जब तक वे वापस हिन्दुस्तान आते तब तक कस्टोडियन ने लुधियाना में उनके मकान को भी भारत छोड़कर जाने वालो में शुमार करके राजसात कर किसी और के नाम कर दिया. तमाम कोशिशो के बाद भी साहिर उस मकान को वापस हासिल न कर सके. और… और जाते-जाते, पिछली बार ‘इश्क़-इश्क़’ में ‘कोहे-तूर’ की जगह ‘कोहे-नूर’ छप गया है सो ठीक कर लें. दूसरी बात आपने साहिर के बहुत सारे गीत शामिल करने की फरमाइश की थी पर एक भी नहीं कर पाया. मैं खुद भी उन गीतों के साथ ही साहिर की शायरी, उनकी और ढेरों बातें कहना चाहता था लेकिन वही न कि अपना सोचा हुआ सब होता कहां है. तीसरी और आज की आख़िरी बात. लगातार चार हफ्ते साहिर की बात करते-करते मैं इतना साहिरमय हो चुका हूं कि अब अगली बार किसी दूसरे गीतकार की बात तो नहीं ही कर पाऊंगा. कुछ एंड-बेंड करके दिमाग को ज़रा हल्का करूंगा. और फिर जब होश में आया तो इस गीतकारों वाले सिलसिले को दुबारा शुरू करेंगे. नहीं, मतलब, अपनी तो आपस की बात है न तो छुपाने की क्या ज़रूरत, खुल के कहो, ख़ुश रहो. तो बस फिर मिलते हैं अगले हफ्ते. तब तक. जय-जय.
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
http://www.thebhopalpost.com/index.php/2010/07/sahir-2/
(दैनिक भास्कर के
रविवारीय परिशिष्ट रसरंग
में 18 अप्रेल 2010
को प्रकाशित)
राजकुमार केसवानी
हां जी, तो पिछले हफ्ते की बात में साहिर
लुधियानवी साहब बम्बई पहुंच चुके थे. फिल्मों में गीत लिखने का सिलसिला शुरू हो
चुका था. ‘ठंडी
हवाएं, लहरा
के आएं’ (लत्ता-नौजवान-1951)
के साथ ही साहिर की
ज़िन्दगी की जदोजहद की तपिश में पुरसुकून ठंडक ने दस्तक दी.
‘नौजवान’ से संगीतकार एस.डी.बर्मन के साथ साहिर
का सफर शुरू हुआ तो इस जोड़ी ने मिलकर ऐसे अमर गीत रचे कि आज तक बेजान रूहों को
हयात करने का दम रखते हैं. ‘तदबीर
से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले’, ‘ये कौन आया कि मेरे दिल की दुनिया में बहार आई’ (गीता दत्त-बाज़ी-51), ‘ये रात ये चान्दनी फिर कहां, सुन जा दिल की दास्तां’ (हेमंत कुमार-लत्ता-जाल-52), ‘जाएं तो जाए कहां, समझेगा कौन यहां / दर्द भरे दिल की
ज़ुबां’, ‘दिल
जले तो जले, ग़म
पले तो पले / किसी की न सुन गाए जा’, ‘दिल से मिलाके दिल चार कीजिए’, ‘चाहे कोई ख़ुश हो चाहे गालियां हज़ार दे
/ मस्तराम बनके ज़िन्दगी के दिन गुज़ार दे’ (टैक्सी ड्राईवर-54), ‘जिसे तू कबूल कर ले वो अदा कहां से लाऊं’
(लत्ता-देवदास-55),
‘तेरी दुनिया में जीने
तो बेहतर है कि मर जाएं’ , ‘फैली
हुई हैं सपनों की बाहें, आजा
चल दें कहीं दूर’ (हाऊस
न.44), ‘जाने
वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला, हमने तो जब कलियां मांगीं कांटो का हार
मिला’, ‘जिन्हें
नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं’, ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’, (प्यासा-57).
साहिर ने इन गीतों के
ज़रिये एक कमाल कर दिखाया. बिना अपने कवि तत्व को खोए, सरल और सुबोध भाषा में गीतों की रचना
की. फिल्म की किसी ख़ास सिचुएशन के लिए लिखे जाने के बावजूद, साहिर के गीतों में एक अदभुत सार्वजनिक
व्यापकता और ऊंचे मयार की शायरी है. अब ज़रा मिसाल के तौर पर इस गीत पर ग़ौर
फरमाएं. ‘ये
रात ये चान्दनी फिर कहां, सुन
जा दिल की दास्तां’ अंतरे
में सादा लफ्ज़ और ख़ूबसूरत शायरी देखिये.
‘हे, लहरों के होंठों पे
धीमा-धीमा राग है / भीगी हवाओं में ठंडी-ठंडी आग है / इस हसीन आग में तू भी जल के
देख ले / ज़िन्दगी के गीत की धुन बदल के देख ले / खुलने दे अब धड़कनों की ज़ुबां’
या फिर ‘ फैली हुई हैं सपनो की बाहें’ के अंतरे में पंजाबी के एक लफ्ज़ ‘धनक’ (इन्द्रधनुष) को कितनी खूबसूरती से इस्तेमाल करके एक हसीन ख़याल को शक्ल दी
है ‘ झूला धनक का धीरे-धीरे हम झूलें / अम्बर तो क्या है
तारों के भी लब छू लें’.
गुलज़ार साहब की
व्याख्या में ‘…साहिर के गीतों पर शायरी के वक़ार और
ऊंचाई की मुहर है ‘ वे मानते हैं कि उनके गीतों में ऐसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल हुआ
है जो अपने आप में संगीत से भरे हुए हैं. मिसाल के तौर पर 1952 की फिल्म ‘जाल’ में लता जी का गाया गीत ‘पिघला है सोना दूर गगन पर / फैल रहे हैं
शाम के साये’. या
फिर इसी फिल्म से हेमंत कुमार की आवाज़ में ‘ ये रात ये चान्दनी फिर कहां / सुन जा
दिल की दातां’ के
अंतरे में ‘ पेड़ों
की शाखों पर, सोई-सोई
चान्दनी / और थोड़ी देर में थक के लौट जाएगी’.
इस वक़्त जब मैं
साहिर साहब के गीतों की ख़ूबी की बात कर रहा हूं, मुझे नरगिस जी का एक लेख याद आ रहा है.
किसी ज़माने में उर्दू में छपा साहिर पर उनके इस लेख में उन्होने कहा था. ‘
साहिर को हर लिहाज़
से महफूज़ रखना चाहिये – फिल्म
इंडस्ट्री के लिए भी और उर्दू शायरी के लिये भी’. इस बात का खुलासा करते हुए कि उनका
साहिर से उनका कभी कोई ख़ास तालुक़ नहीं रहा लेकिन उनकी शायरी की वे दीवानी है.
वे मानती थीं कि फिल्म
‘प्यासा’ का गीत ‘हम आपकी आंखों में इस दिल को बसा दें तो’
ऐसा रोमांटिक गीत है
जिसे ‘…एक
लड़की और एक लड़का अगर एक गीत के ज़रिये इज़हारे-मोहब्बत करना चाहें तो साहिर के
लिखे इस गीत से मुख़्तलिफ कोई गीत नहीं गा सकते’. लेकिन साथ ही उनने यह भी बता दिया कि जब
‘…मैं अकेली, तन्हा होती हूं या अपने ख़यालों की
दुनिया में डूबी होती हूं तो हमेशा गुनगुनाती हूं – ‘तंग आ चुके हैं कश्मकशे-ज़िन्दगी से हम
/ ठुकरा न दे जहां को कहीं, बेदिली
से हम’
यह रचना असल में
मोहम्मद रफी की आवाज़ में गुरूदत्त पर फिल्म ‘प्यासा’(57) में फिल्माई गई थी. एक साल बाद आशा
भोंसले की आवाज़ में फिल्म ‘लाईट
हाऊस’ (58) के
लिए इसका मुखड़ा लेकर एक नया गीत बना दिया.रफी ने इसे बिना किसी साज़ या संगत के
तरन्नुम में सुनाया है जबकि आशा जी के साथ पूरा आर्केस्ट्रा है.
इन गीतों ने साहिर को
हिन्दी सिनेमा में एक ऐसे मकाम पर पहुंचा दिया जहां अकेले वे ही थे. अब वे काम
सिर्फ अपनी शर्तों पर करने लगे थे और लोग उनकी शर्तें मानकर भी उन्हीं से गीत
लिखवाना चाहते थे. उनकी शर्तों ने उस दौर के सारे फिल्मी निज़ाम को बदल डाला. अब
तक रेडियो पर गीत के साथ सिर्फ गायक और संगीतकार का नाम लिया जाता था, साहिर ने गीतकार को भी जगह दिलाई. अगर
लत्ता मंगेशकर ने रिकार्ड बनाने वाली कम्पनी एच.एम.वी. को गायक को रायलटी देने पर
मजबूर किया तो साहिर ने गीतकार को ये हक़ दिलवाया. गिनती के दो-चार अपवादों को
छोड़कर उन्होने धुन के हिसाब से गीत नहीं लिखे बल्कि पहले गीत लिखे और फिर धुनें
बनीं.
उनकी एक और शर्त थी
जिसकी वजह से बहुत सारे संगीतकार चाहकर भी उनके साथ काम करने से कतराते थे. वे गीत
में शब्द को ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते थे. या यूं कहें कि वे मानते थे कि गीतों की
लोकप्रियता में संगीतकार से ज़्यादा उनके गीतों का योगदान था. इसी कारण वे अपनी
फीस उस दौर के नामचीन संगीतकारों की फीस से एक रुपया ज़्यादा मांगते थे.
बाकी शर्ते तो ठीक,
लिखने के लिए बाद में
संगीतकार भी अपनी ही पसन्द का चाहते थे. निर्माता-निदेशक उनकी इस शर्त को मान
लेते थे. यश चौपड़ा जैसे बड़े निर्माता-निदेशक ने भी ‘दाग़’(1973) के बाद जब ‘कभी कभी’ (76) शुरू की तो साहिर ने
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जगह ख़य्याम को बतौर संगीतकार मांग लिया. यश जी के पास
इसे मानने के अलावा कोई चारा न था. आख़िर को इस फिल्म के नायक का चरित्र भी साहिर
की ज़िन्दगी से प्रेरित होकर लिखा गया था.
लेकिन यह कोई पहला
मौका नहीं था. साहिर ने पचास के दशक में ही एस.डी.बर्मन के सहायक एन.दत्ता (दत्ता
नायक) को बतौर स्वतंत्र संगीतकार स्थापित होने में बहुत मदद की. ढेरों फिल्मों में
काम दिलाया और ख़ुद बिना फिल्म के बजट की फिक्र किए गीत भी लिखे. इस मोहब्बत का
नतीजे में जो नगीने पैदा हुए ज़रा एक नज़र उन पर डाल लें. ए.दत्ता की पहली फिल्म ‘मिलाप’(1955) में लत्ता का गीत ‘चान्द तारों का समा, खो न जाए आ भी जा’, ‘बता ऎ आसमां वाले तेरे बन्दे किधर जाएं’
और ‘अब वो करम करे कि सितम, मैं नशे में हूं’ (मैरीन ड्राईव-55),
1958 में साहिर एन.दत्ता
को बी.आर.चौपड़ा केम्प मे भी ले आए और पहली ही फिल्म ’साधना’ में धूम मचा दी. ‘औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया’, ‘कहो जी तुम क्या-क्या ख़रीदोगे, यहां तो हर चीज़ बिकती है’, ‘तोरा मनवा क्यों घबराए रे, लाखों दीन-दुखियारे प्राणी जग मे मुक्ति
पाएं, हे
राम जी के द्वार से’, ‘सम्भल
ऎ दिल, तड़पने
और तड़पाने से क्या होगा’ और
‘आज क्यों हमसे पर्दा
है’.
अगले साल फिर इसी
जोड़ी ने हिन्दुस्तानी समाज को एक गूंज से झकझोर डाला. ‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा,
इंसान की औलाद है,
इंसान बनेगा’.
मैं अपने तजुर्बे की
बात करता हूं. मेरी उम्र उस वक़्त बमुश्किल 9 साल की होगी जब मैने यह फिल्म अपने
पित्ता के साथ देखी थी. इसका पहला असर तो ये हुआ कि मनमोहन कृष्ण नाम का अदाकार जो
मुझे अब तक नापसन्द था, अछा
लगने लगा. क्योंकि पर्दे पर यह गीत वही गा रहा था. दूसरे यह कि इस दुनिया में अपने
9 साल के तजुर्बे में
इस एक जुड़वां शब्द ‘हिन्दू-मुसलमान’
के जो मायने समझे थे
वो हमेशा ‘प्रचारित
परिभाषा’ से
टकराते थे. इस एक गीत ने उस कच्ची उम्र में मुझे इस उलझावे से निजात दिला दी.
पिछले 50 साल में न जाने कितने ऐसे मौके आए हैं
जब दिल ने कहा कि देश के कोने-कोने में जाकर बार-बार इस गीत को बजाऊं. मुझे बहुत
यकीन है ऐसे मूर्खतापूर्ण विचार इस सयानी दुनिया में आज़माए जाना बहुत ज़रूरी हैं.
ख़ैर, मेरे पास ज़िन्दगी में कभी न तो इतने
साधन रहे और न कभी इतनी बड़ी हैसियत कि ऐसी ‘बुद्धू बातें’ दुनिया में कहीं लागू कर सकूं. आज मौका
मिला है तो यह पूरा का पूरा गीत सुना तो ज़रूर दूंगा.
अछा है कि
अब तक तेरा कुछ नाम नहीं है
तुझको किसी
मज़हब से कोई काम नहीं है
जिस इल्म
ने इंसान को तक़्सीम किया है
उस इल्म का
तुझ पर कोई इलज़ाम नहीं है
तू बदले
हुए वक़्त की पहचान बनेगा
इंसान की
औलाद है इंसान बनेगा
तू हिन्दू
बनेगा न…
मालिक ने
हर इंसान को इंसान बनाया
हमने उसे
हिन्दू या मुसलमान बनाया
क़ुदरत ने
तो बक्शी थी हमें एक ही धरती
हमने कहीं
भारत कहीं ईरान बनाया
जो तोड़ दे
हर बन्द वो तूफान बनेगा
इंसान की
औलाद है…
नफरत जो
सिखाए वो धरम तेरा नहीं है
इंसां को
जो रौन्दे वो क़दम तेरा नहीं है
क़ुरआन न
हो जिसमे वो मन्दर नहीं तेरा
गीत न हो
जिसमें वो हरम तेरा नहीं है
तू अम्न का
और सुलह का अरमान बनेगा
इंसान की
औलाद है…
ये दीन के
ताजिर(व्यापारी), ये वतन बेचने वाले
इंसान की
लाशॉं का कफन बेचने वाले
ये महलों
में बैठे हुए क़ातिल ये लुटेरे
कांटॉ के
इवज़ रूहे-चमन बेचने वाले
तू इनके
लिए मौत का पैग़ाम बनेगा
इंसान की
औलाद है इंसान बनेगा
और…
अपने जज़्बात की रौ
में बहकर यहां तक आ गया और बहुत सारी बात बाकी है. सो अब क्या ? अब तो बात करने को एक बार और साहिर साहब
की बात करनी होगी. सो करेंगे. मतलब अगले हफ्ते ‘आपस की बात’ में होगी फिर से ‘आपस की बात’.
जय-जय.
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“अल्ला तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम…”
दैनिक भास्कर के रविवारीय
परिशिष्ट ‘रसरंग’ में 25 अप्रेल 2010 को प्रकाशित)
राजकुमार केसवानी
देखा आपने, पिछली बार पूरा का पूरा ‘ तू हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा’ सुना दिया लेकिन अपनी धुन में फिल्म का
नाम तक नहीं बताया. ख़ैर, आप
में से बहुत लोग जानते ही हैं कि यह 1959 में रिलीज़ हुई बी.आर. फिल्म्स की ‘धूल का फूल’ का गीत है फिर भी मेरा फर्ज़ बनता है
बताना. सो बता दिया.
एन. दत्ता के साथ यूं
तो ‘चन्द्रकांता’(56),
‘दीदी’ (59), ‘धर्मपुत्र’ (61), ‘चान्दी की दीवार’ (64) और ‘नया रास्ता’ (70) जैसी कई फिल्मों में गीत लिखे और क्या
ख़ूब लिखे.
इसी तरह उन्होने
संगीतकार रवि , रोशन
, जयदेव और ख़य्याम के
साथ भी बेहतरीन काम किया लेकिन सोचता हूं कि संगीतकार के साथ वाली बात को यहीं छोड़
दूं. वजह यह कि मुझे लगता है कि जोड़ी की बजाय इस बात को जानना ज़रूरी है कि साहिर
के पास अभिव्यक्ति की कितनी अदभुत विविधता थी.
अब जैसे उनके उस रंग
से शुरू करें जिसके लिए वह बेहतर जाने जाते हैं. इंक़लाबी शायर, समाजी मसलों का शायर, ग़रीब-मज़दूर-किसान के हक़ में कलम
उठाने वाला कामरेड. ‘जिन्हे
नाज़ है हिन्द पर वो कहां है’ (प्यासा-57), ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ (फिर सुबह होगी-58), ‘साथी हाथ बड़ाना साथी रे’ (नया दौर-57), ‘समाज को बदल डालो, ज़ुल्म और लूट के रिवाज को बदल
डालो’(समाज
को बदल डालो-70),‘पोंछ कर अश्क अपनी आंखों से
मुस्कराओं तो कोई बात बने, सर झुकाने से कुछ नहीं होगा,
सर उठाओ तो कोई बात बने’ (नया रास्ता-73) वग़ैरह.
इस बात को ज़रा एक
बार सोचकर देखियेगा. साहिर ने समाज के पीड़ित-शोषित वर्ग की आवाज़ को अपने गीतों
के ज़रिये जिस बुलंदी के साथ घर-घर पहुंचाया, उसकी कोई दूसरी मिसाल, सिनेमा या सिनेमा के बाहर भी नहीं है.
साहिर जैसे ऊंचे पाए
के शायर ने अन्याय के विरुद्ध अपने आक्रोश को व्यक्त करने के लिए पैरोडी का सहारा
लेने से गुरेज़ नहीं किया. उन्होने महाकवि अल्लामा इक़बाल की मशहूर नज़्म ‘सारे जहां से अछा हिन्दोस्तां हमारा’ को बेघर, फुटपाथ पर सोने वालों के हक़ में इसे
बदल कर कहा ‘चीनो-अरब हमारा, हिन्दोस्तां
हमारा / रहने को घर नहीं है सारा जहां हमारा’. कवि प्रदीप ने फिल्म ‘नास्तिक’ (54) में गीत लिखा ‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल
गया इंसान’. साहिर
ने मदन मोहन के साथ मिलकर फिल्म ‘रेल्वे प्लेटफार्म’ (55) में इसकी पैरोडी बना दी – ‘देख तेरे भगवान की हालत क्या हो गई इंसान, कितना बदल
गया भगवान’.
इंक़लाब-ज़िन्दाबाद
के साथ अपनी भी एक छोटी-मोटी, भले ही नाकाम सी आवाज़ तो हमेशा रही है सो साहिर की इंक़लाबी
शायरी ने तो हमेशा ही मन को झकझोरा लेकिन अपने बारे में एक राज़ की बात और बताता
हूं. नाकामियों ने बहुत लड़कपन में ही दामन थाम लिया था. न जाने क्यों दो वक़्त की
पूरी रोटी मिलने के बावजूद रूह की भूख हमेशा बनी रहती थी. बल्कि बनी ही रहती है. सो
नादानी की उस उम्र में भी दिल को तड़पाने वाले ‘दर्दी गीत’ बहुत अछे लगते थे.
मोहल्ले में जलील भाई
पीठे वाले ने एक एक्सीडेंटशुदा बेडफोर्ड ट्रक का बिना इंजन का ढांचा गली में पटक
रखा था. उसके ठीक बगल में बिजली का खम्बा था, जिसका बल्ब हमेशा ख़राब रहता था. सो बस
उसी अन्धेरे में बिना कहीं पहुंचने वाली उस गाड़ी में बैठकर अकेले में अक्सर जो
गीत गाता था, आगे
चलकर पता चला वो साहिर लुधियानवी के हैं. ख़ासकर ‘मैने
चान्द और सितारों की तमन्ना की थी, मुझको रातों की स्याही की
सिवा कुछ न मिला’.(चन्द्रकांता-56).
आगे चलकर जब-जब दर्द ने
पनाह ढूंढी, अकेलेपन
और तन्हाई की टीस ने ज़बान मांगी तो ज़्यादातर साहिर की शायरी ने आ-आ कर सहारा
दिया. ‘जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार
मिला / हमने तो जब कलियां मांगी, कांटो का हार मिला’
(प्यासा), ‘तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएं’(हाऊस नम्बर 44), ‘दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना, जहां नहीं चैना,
वहां नहीं रहना’ (फंटूश-56), ‘अश्कों में जो पाया है, वो गीतों में दिया है / उस
पर भी सुना है कि ज़माने को गिला है’ (चान्दी की दीवार-64) टाईप के पच्चीसों गीत.
और हां, इन सबसे ऊपर. ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनो’. ऐसी ही रचनाएं होती हैं जो अपने से
जुड़े हर शख्स को ऊंचा उठा देती हैं. कहते हैं – ‘तारुफ
रोग हो जाए, तो उसको भूलना बेहतर / तालुक बोझ बन जाए,
तो उसको तोड़ना अछा / वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाआ न हो मुमकिन /
उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर तोड़ना अछा’.
और जब मस्ती का रंग हो
तो साहिर फिर कमाल कर जाते हैं. ‘ऎ मेरी टोपी पलट के
आ, न अपने फंटूश को सता’ (फंटूश), ‘सर
जो तेरा चकराए’ (प्यासा), ‘चाहे कोई
ख़ुश हो, चाहे गालियां हज़ार दे / मस्तराम बनके ज़िन्दगी के
दिन गुज़ार दे’.
साहिर तब और भी इंसान
नज़र आते हैं जब वो इंसानी रिश्तों को ऐसे मकाम पर पहुंचा देते हैं जहां से बाकी
सारी चीज़ें छोटी नज़र आने लगती हैं. अब जैसे फिल्म ‘काजल’ में एक बहन कहती है – ‘मेरे भैया, मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन / तेरे बदले
मे ज़माने की कोई चीज़ न लूं’. दूसरी बहन कहती है ‘मेरे भैया को सन्देसा पहुंचाना, रे चन्दा तेरी जोत
बड़े’ (दीदी).
मोहब्बत को इंसान की
ज़िन्दगी की सबसे कीमती और सबसे आला तरीन नियामत बताने वाले इंसानियत के आशिक़ इस
शायर ने फिल्म ‘बरसात
की रात’(60) की
अपनी महान क़व्वाली ‘ये इश्क़,इश्क़
है इश्क़,इश्क़’ में कहा है ‘इश्क़ आज़ाद है, हिन्दू न मुसलमान है इश्क़ / आप ही
धर्म और आप ही ईमान है इश्क़ / अल्लाह और रसूल का फरमान इश्क़ है / यानी हदीस
इश्क़ और क़ुरान इश्क़ है / गौतम का और मसीह का अरमान इश्क़ है / इंतेहा ये है कि
बन्दे को ख़ुदा करता है इश्क़’.
इश्क़ के इस पुजारी
की रुमानियत में कितने ख़ूबसूरत रंग कितनी भीनी-भीनी महक थी. ‘छू लेने दो नाज़ुक होंठों को, कुछ और नहीं हैं जाम
हैं ये, कुदरत ने जो हमको बक्शा है, वो
सबसे हसीं ईनाम है ये’ (काजल-65), ‘ और फिर वही ‘हम आपकी आंखों मे इस
दिल को बसा दें तो’ (प्यासा), ‘बरसात की रात’ में ‘ ‘ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी
वो बरसात की रात/ एक अंजान हसीना से मुलाक़ात की रात’ और ‘मैने
शायद तुम्हे पहल भी कहीं देखा है’. या फिर ‘ताज महल’ (63) के ‘जुर्मे
उल्फत पे हमें लोग सज़ा देते हैं / कैसे नादान हैं, शोलों को
हवा देते हैं’, ‘पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी’
और ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’,
और न जाने
कितने-कितने. और हां, वो
नायाब गीत जिसे सुनकर आज भी प्यार-मोहब्बत के आगे उम्र के सारे बन्धन टूटते नज़र
आते हैं. ‘ऎ मेरी ज़ोहरा जबीं, तुहे मालूम नहीं / तू अभी तक है हसीं, और मैं जवान
तुझपे कुरबान मेरी जान, मेरी जान’. (वक़्त- 65).
एकदम कोमल भावनाओ
वाला गीत देखना हो तो ये गीत ज़रूर सुन देखें. संगीतकार मदन मोहन मोहन और साहिर ने
बहुत कम फिल्में साथ की लेकिन जो कीं क्या कमाल कीं. लत्ता की आवाज़ में ये गीत
उसी का एक नमूना है. ‘चान्द मद्धम है, आस्मां चुप है / नीन्द की गोद में जहां चुप है (रेल्वे प्लैटफार्म-55). ‘बस्ती-बस्ती पर्बत-पर्बत गाते जाए बंजारा’ भी इसी फिल्म का गीत है.
आज के दौर में नई
पीढ़ी के लिए यह समझना थोड़ा मुश्किल होगा कि किस तरह गुज़रे दौर में साहिर ने औरत
हक़ में अपनी कलम को नश्तर बनाकर समाज को उस वक़्त चुभोया है, जब सारा समाज ‘मर्दानगी’ के नशे में चूर था. ये साहिर के बस की
ही बात थी कि उसने अपनी कालजयी नज़्म ‘चकले’ में कोठे पर बैठ पेशा करने को मजबूर
तवायफ को यशोदा, राधा
और ज़ुलेख़ा के साथ खड़ा कर दिखाया. ‘मदद चाहती है
ये हव्वा की बेटी / यशोदा की हम-जिंस (सजातीय), राधा की बेटी
/ पयम्बर की उम्मत (अनुयायी), ज़ुलेख़ा की बेटी /
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-माशरिक कहां हैं (जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं).
दुनिया से चाहे जितने
नाराज़ी हो. चाहे कहते हों कि ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’
लेकिन इस अज़ीम शायर
का दिल बच्चों को देखकर उम्मीदों से भर जाता है. उसे लगता है कि इस बच्चे के
ज़रिये आने व कल को बेहतर बनाया जा सकता है. ‘बच्चों
तुम तक़दीर हो कल के हिन्दुस्तान की / बापू के वरदान की,
नेहरू के अरमान की’(दीदी). ‘भारत
मां की आंख के तारों, नन्हे-मुन्ने राज दुलारों / जैसे मैने
तुमको संवारा, वैसे ही तुम देश संवारों’ (बहू बेटी), ‘बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आंख के तारे / ये वो
नन्हे फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे’ (दो कलियां -68).
भक्ति रस की बात हो
तो ‘तोरा मनवा क्यों घबराए रे / लाखों दीन दुखियारे
प्राणी / जग में मुक्ति पाएं/ रे राम जी के द्वार से’ (साधना), ‘आना
है तो आ राह में कुछ देर नहीं है / भगवान के घर देर है अन्धेर नहीं है’
(नया दौर). मेरी नज़र
में हमारी दुनिया की सबसे खूबसूरत प्रार्थना भी साहिर ने ही लिखी है. ‘अल्ला तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम / सबको सन्मति दे
भगवान’ (हम
दोनो).
अध्यात्म की पकड़
ऊंचाई देखनी हो तो सर्वकालिक महान गीत ‘मन रे तू
काहे न धीर धरे / वो निर्मोही, मोह न जाने, जिनका मोह करे’ यह अन्याय होगा अगर इस गीत को भी बस
दो बोल देकर छोड़ दूं. बहुत अर्थवान बाते हैं, सो पूरा ही सुन
लें. ‘ इस जीवन की चढ़ती-ढलती, धूप को
किसने बान्धा / रंग पे किसने पहरे डाले, रूप को किसने बान्धा
/ काहे ये जतन करे / मन रे… / उतना ही उपकार समझ कोई,
जितना साथ निभा दे / जनम-मरन का खेल है सपना , ये सपना बिसरा दे / कोई न संग मरे / मन रे…’
दार्शनिकता की इतनी
गहरी समझ है कि सामान्य से पार्टी में गाए गए गीत के शब्द हो जाते हैं ‘आगे भी जानी न तू, पीछे भी जाने न तू / जो भी है,
बस यही इक पल है’. (वक़्त). कोई दूसरा गीतकार फिल्म ‘नीलकमल’ कबाड़ी बनकर गीत गाते महमूद के लिए क्या
लिखता, पता
नहीं, लेकिन
साहिर ने की पत्ते के बात – ‘ख़ाली डब्बा, ख़ाली बोतल, ले ले मेरे यार, ख़ाली
से मत नफरत करना, ख़ाली सब संसार’.
इसी तरह फिल्म ‘पैसा या प्यार’ में तनूजा जब गीत गाती बेर बेचने निकलती
है तो वह गीत एक बड़ी सच्चाई भी याद दिलाता है. ‘बेर
लियो-3, हां, मेवा ग़रीबों का, तेरे मेरे नसीबों का’. आपने और भी सामान बेचने वाले या वाली के
पात्र फिल्मों में गीत गाकर सामान बेचते देखे होंगे लेकिन उन गीतों में
ऐसी कोई बात दिखाई दी क्या ?
मेरे एक दोस्त ने एक
बार मेरी इस बात पर ऐतराज़ करते हुए कहा कि ‘ यार वो बेर वाली होकर ऐसे फलसफे की बात
करती हज़म नहीं होती’. मैने
पूछा ‘ मैने
कहा, ओये
यारा. सड़क पर बेर बेचती या चने बेचती लड़की लता और आशा की ख़ूबसूरत आवाज़ में,
नाचती,गाती हज़म हो जाती है ? और आख़िर, यह बात किसने तय कर दी है कि अपने
दम-ख़म पर दुनिया में जीने निकला इंसान अक्ल से भी कमतर होता है ?
और…
और तो यह कि बात तो
आज भी खत्म नहीं हुई. एक और फाईनल बात तो बनती है बास. अब आख़िर को आप ही के
बार-बार के इसरार की वजह से ही तो फुल बात कर रहा हूं. तो चलिए अगली बार हाज़िर
होता हूं साहिर साहब की एकदम फुल ऎंड फाईनल बात के साथ. तब तक. जय-जय.
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‘मैं ज़िंदा हूं यह मुश्तहर कीजिये…’
(दैनिक भास्कर के रविवारीय
परिशिष्ट रसरंग में 2 मई 2010
को प्रकाशित)
राजकुमार केसवानी
आज फिर मौका है कि अपने एक राज़ को आपके साथ बांटकर बात शुरू करूं. वो राज़ यह है कि दिल इस ख़याल भर से उदास है कि आज आख़िरी बार साहिर की बात करनी है. यह जानते हुए भी कि इस आख़िरी का मतलब शायद बिल्कुल आख़िरी नहीं है फिर भी दिल तो दिल है. बकौल ग़ालिब ‘ दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यों / रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमे सताए क्यों’. पिछले दो दिन से लगातार 78 आर.पी.एम. का एक रिकार्ड सुने जा रहा हूं. साहिर की आवाज़ में साहिर की शायरी. एक तरफ ‘कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है’ और दूसरी तरफ ‘मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझको’. एच.एम.वी. ने जिस ज़माने में इसे रिलीज़ किया था उस वक़्त इसकी कीमत चंद रुपए थी, आज यह बेशकीमती है. आप कभी आज़मा कर देखें, अपने किसी अज़ीज़ की आवाज़ को उसकी ग़ैर-मौजूदगी में किसी टेप, किसी सी.डी. पर सुन लें. आपको लगेगा, वो अपना यहीं मौजूद है. आप उससे बात करने लगेंगे. बात हो भी जाएगी. ये मेरा आज़माया हुआ नुस्ख़ा है. अब जैसे दो दिन से मैं इसी फार्मूले से साहिर साहब से बात कर रहा हूं. आप सब की तरफ से बात कर रहा हूं, सो उसे सुनाना भी तो आप ही को है. ‘साहिर साहब, मैं आपसे नाराज़ हूं. आपके नाम का मतलब अगर जादूगर हुआ तो क्या आप जब चाहे आवाज़ बन जाएंगे ? जब चाहे सिर्फ एक ख़ामोश तस्वीर हो जाएंगे ? जब जी चाहेगा, मर जाएंगे ?’ ‘मैं ज़िन्दा हूं यह मुश्तहर कीजिए / मेरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए’. ये क्या ? मैने सवाल आवाज़ से किया था और जवाब किताब से आया ! इस दुनिया का यही कमाल है. सवाल कभी अकेले पैदा नहीं होते, जवाब भी उनके साथ ही पैदा होते हैं. इतना ज़रूर होता है कि पैदा होती ही दोनो को कोई अलग-अलग जगह छुपा देता है. इन दोनो के बीच फासला सिर्फ सच का होता है. सवाल करने वाले की आवाज़ में ज़रा सच्चाई हुई तो जवाब इस कायनात के किसी भी ज़र्रे से आवाज़ बनकर सामने आ जाता है. मगर होता अक्सर ऐसा है कि हम जवाब की उम्मीद में अपने कान उसी दिशा में लगा लेते हैं जिधर मुंह करके सवाल किया होता है. नतीजा – जवाब, कई बार, अपनी पूरी आवाज़ के साथ भी एक सवाल भर रह जाता है. ख़ैर! मेरे सवाल का जवाब तो मुझे मिल गया है. साहिर ज़िन्दा हैं. साहिर के ‘क़ातिलों’ को ख़बर रहे. सच कहूं तो पिछले चार हफ्ते में आप सबने भी जितनी ज़ोर से अपनी आवाज़ बुलन्द करके मुझे यह ख़बर दी है उसके बाद मैं बेहद मुतमईन हूं कि ज़िन्दगी ने भले साहिर से धोखा किया हो लेकिन वक़्त आज भी उसी के साथ है. सच मानिए ज़िन्दगी ने साहिर के साथ बड़ा ज़लील धोखा किया. वो तो जीना चाहता था. पंजाबी के अज़ीम शायर शिवकुमार बटालवी की भरी जवानी में मौत की ख़बर सुनकर साहिर ने कहा था ‘ …वो शिव, फूल बन गया होगा या तारा. हम जो मरेंगे तो करेले का फूल ही बनेंगे. क्योंकि जवानी में तो हम मरने वाले नहीं’. अब कोई बताए कि आख़िर साहिर से अज़ीमो-शान शायर के लिए महज़ 59 साल की उम्र, जवानी में मौत नहीं तो क्या है ? लेकिन इतना तय है कि साहिर जब तक जिए , ख़ूब जिए. जितना ख़ुद के लिए जिए, उससे कहीं ज़्यादा समाज के लिए जिए. अपने लिए बस शामें सजाईं. ज़माने को अपनी शायरे दी. ऐसी शायरी जो नौजवानी के अरमानों की बात करती है. ऐसी शायरी जो ज़माने की ख़ुशियों से महरूम लोगों के हक़ की बात करती है. शायरी जो औरत को ख़ुदा का दर्जा देती है. ज़रा ग़ौर फरमाएं, साहिर जब अपनी बात करते हैं तो कहते हैं ‘मैं पल दो पल का शायर हूं’ अपने दुनियावी व्यवहार में भले ही अखड़पन और अहंकार दिखाते हों लेकिन जब शायर बनकर अपनी बात करते तो कहते ‘मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी कहानी है’ यहां ख़ुदनुमाई से इतनी दूरी कि उनकी ग़ज़लों के मक़्ते में आपको शायद ही कभी उनका तखल्लुस ‘साहिर’ मिले. दिमाग़ में चाहे जितनी दौलत की गर्मी रहे लेकिन दिल इंसानी अहसास से इस क़दर लबरेज़ कि छलक-छलक पड़ता था. इसकी एक मिसाल निदा फाज़ली के एक किस्से से बख़ूबी समझ आती है. यह उस दौर की बात है जब निदा बम्बई में स्ट्र्गल कर रहे थे. ‘…अक्सर मेरी रातें जांनिसार अख़्तर के घर या साहिर लुधियानवी की ‘परछाइयां’ में बीततीं. साहिर साहब शाही मिजाज़ के आदमी थे. उनकी यह शहंशाहियत उन्हें विरासत में मिली थी… (वहां) बड़िया खानो व महंगी शराबों का लुत्फ उठाता था. …एक रात शायद मुझे नशा ज़्यादा हो गया था, और उस नशे में मैं प्रेक्टीकल होने के बजाय किताबी ज़्यादा हो गया था’. निदा साहब ने नशे की उसी झोंक में साहिर के सामने ही साहिर की शायरी के मुकाबले फिराक़ गोरखपुरी और फैज़ अहमद ‘फैज़’ की तारीफ कर दी. नाराज़ होकर साहिर ने निदा को दस-बीस सुनाई और बाहर निकल जाने का हुक्म दे दिया. इस बीच साहिर की मां भी बाहर निकल आईं थी. अब मैं फिर से निदा को ही कोट कर रहा हूं, बस ज़रा ग़ौर से सब कुछ देखिएगा और तय कीजिएगा. “मां जी, देखा. मैने इसकी हालत पर तरस खाया और नतीजे में यह पाया. मेरे सामने ही मेरी बुराई कर रहा है’ दूसरों की तारीफ को वह अपनी बुराई मानते थे. मैं मेज़ से उठकर दरवाज़े की तरफ बढ़ा ही था कि देखा, साहिर मेरे कन्धे पर हाथ रखकर कह रहे हैं, ‘नौजवान, इतनी रात को जा रहे हो…खाना नहीं खा रहे हो, तो ये रुपए रख लो.’ वह मुझे कुछ देना चाहते थे लेकिन मैने नहीं लिया और तेज़ क़दमों से नीचे उतर आया”. ऐसा था बच्चों की तरह रूठ जाने वाला और इंसानों की तरह इंसानों की सोचने वाला साहिर लुधियानवी. आस्मां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम साहिर ने लिखा था ‘ आस्मां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम / आजकल वो इस तरफ देखता है कम’(फिर सुबह होगी). मुझे यकीन है कि हम सब इस बात को तहे-दिल से मानते हैं. मैं इसे न सिर्फ मानता हूं बल्कि इस बात पर मेरा ‘उससे’ झगड़ा भी है. आख़िर को जिस ज़मीन पर हमें भेज दिया वहां किसी तरह का इंसाफ की पाबंदी वाला एक निज़ाम तो हो. अगर ये मुमकिन नहीं तो फिर ये जहां क्यों हो ? साहिर ने तमाम उम्र इसी नाइंसाफी, ग़ैर बराबरी, वहशत और दहशत के ख़िलाफ आवाज़ बुलन्द की. संगीतकार ख़य्याम, जिनके साथ साहिर ने ‘फिर सुबह होगी’, ‘कभी-कभी’ और ‘शगुन’ जैसी फिल्में की, कहते हैं – ‘क्या हम इस बात की कल्पना भी कर सकते है कि साहिर के अलावा किसी दिन, किसी गीत में ‘ मैं देखूं तो सही दुनिया तुम्हे कैसे सताती है / कोई दिन के लिए, अपनी निगहबानी मुझे दे दो’(शगुन) जैसी बात कोई दूसरा कह सकेगा ? यह बात इसलिए ज़्यादा मह्त्वपूर्ण है क्योंकि यह बात नायक से उसकी प्रेमिका कह रही है. वह भी उस दौर में जिस दौर में औरत को ‘अबला’ की पहचान दी गई थी. लेकिन साहिर की ‘अबला’ ज़माने को चुनौती देती है कि उसकी निगहबानी में मुश्किल में फंसे ‘मर्द’ को छूकर दिखा दे. इन्ही वजहों से यश चौपड़ा जैसे फिल्मकार कहते हैं कि ‘साहिर के गीतों से पूरी फिल्म का मय्यार ऊंचा हो जाता था’. यही वजह थी कि बी.आर.चौपड़ा की लगभग सारी फिल्मों के गीतकार साहिर ही रहे, भले ही संगीतकार एन.दत्ता हों, ओ.पी.नैयर हो या फिर रवि. यश जी ने तो अपनी फिल्म ‘कभी कभी’ (76) में साहिर के गीतों के सहारे बना ली लेकिन 1980 में साहिर की मौत के बाद भी वो उनके दिलो-दिमाग से परे न हुए.सो 1998 में उन्होने साहिर की ज़िन्दगी पर एक फिल्म बनाने का इरादा ज़ाहिर किया था. फिल्म में अमिताभ बच्चन को साहिर की भूमिका, शबाना आज़मी को अमृता प्रीतम की भूमिका के लिए चुन भी लिया था और इस त्रिकोण की दूसरी नायिका का चयन के लिए कई नाम थे. इस दूसरी नायिका का चरित्र गायिका सुधा मल्होत्रा पर आधारित था. अब मैं आता हूं उस ऊपर वाली बात पर वापस कि ‘…आजकल वो इस तरफ देखता है कम’. उसने साहिर को फन और कामयाबी दोनो दिए लेकिन उसके बदले में उससे क्या-क्या न छीना गया. बचपन में बाप का साया. जवानी में दर्जन भर नाकाम इश्क़ और तन्हाई. तन्हा-तन्हा सांसों के साथ मां का आंचल थामे-थामे जीते रहे. 1978 में मां के देहांत के बाद साहिर टूट गए. इसी के बाद उन्हें पहली बार हार्ट अटैक हुआ. दो साल बाद वे अपने टूटे हुए दिल के साथ ख़ुद भी इस दुनिया को अलविदा कह चले. गोया कि जीते जी हुए ज़ुल्म काफी न थे, सो मरने के बाद भी यह सिलसिला बना हुआ है. 1970 में उन्होने बेहद शौक़ से एक विशाल घर बनाया था, जिसका नाम है ‘परछाइयां’. इस नाम की उनकी एक बेहद ख़ूबसूरत नज़्म भी है. आज उस घर का कोई वारिस नहीं है सो कई लोगों ने उस पर कब्ज़ा जमा रखा है. साहिर के उस ड्राइंग रूम में जहां हर शाम बेहतरीन स्काच और लज़ीज़ ख़ानों की दावतें होती थीं, कुछ बिल्डरों की निगाह में है. सैंकड़ों अप्रकाशित गीत, ग़ज़ल रद्दी में तुलकर बिक चुके हैं. मौत के बाद उन्हें जुहू के कब्रिस्तान में एक जगह मिली थी वह भी अब बुलडोज़रों की ज़द में आकर मिट चुकी है. साहिर के लिए यह नया नहीं है. 1947 के बंटवारे के बाद साहिर मां की वजह से लाहौर में रुक गए थे. उस समय वे पत्रिका ‘सवेरा के सम्पादक थे. जब तक वे वापस हिन्दुस्तान आते तब तक कस्टोडियन ने लुधियाना में उनके मकान को भी भारत छोड़कर जाने वालो में शुमार करके राजसात कर किसी और के नाम कर दिया. तमाम कोशिशो के बाद भी साहिर उस मकान को वापस हासिल न कर सके. और… और जाते-जाते, पिछली बार ‘इश्क़-इश्क़’ में ‘कोहे-तूर’ की जगह ‘कोहे-नूर’ छप गया है सो ठीक कर लें. दूसरी बात आपने साहिर के बहुत सारे गीत शामिल करने की फरमाइश की थी पर एक भी नहीं कर पाया. मैं खुद भी उन गीतों के साथ ही साहिर की शायरी, उनकी और ढेरों बातें कहना चाहता था लेकिन वही न कि अपना सोचा हुआ सब होता कहां है. तीसरी और आज की आख़िरी बात. लगातार चार हफ्ते साहिर की बात करते-करते मैं इतना साहिरमय हो चुका हूं कि अब अगली बार किसी दूसरे गीतकार की बात तो नहीं ही कर पाऊंगा. कुछ एंड-बेंड करके दिमाग को ज़रा हल्का करूंगा. और फिर जब होश में आया तो इस गीतकारों वाले सिलसिले को दुबारा शुरू करेंगे. नहीं, मतलब, अपनी तो आपस की बात है न तो छुपाने की क्या ज़रूरत, खुल के कहो, ख़ुश रहो. तो बस फिर मिलते हैं अगले हफ्ते. तब तक. जय-जय.