मणि कौल की अधिकतर फिल्में हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर ही
केंद्रित/आधारित हैं। 'सतह से उठता आदमी' (मुक्तिबोध) 'उसकी रोटी' (मोहन
राकेश) और 'नौकर की कमीज'
(विनोद कुमार शुक्ल) का ध्यान इस सिलसिले में सहज ही हो आता है। फिर
'दुविधा' (विजयदान देथा) भी है - राजस्थानी/हिंदी में। इस तथ्य के स्मरण के
साथ यह बात भी
सहज ही ध्यान में आती है कि वह भाषा से संबंधित या उसको सोचता हुआ सिनेमा
भर नहीं है - वह भाषा को सोचता हुआ सिनेमा भी है। इस नाते मणि कौल का
सिनेमा हिंदी में
बनी हुई फिल्मों से बहुत अलग हैः फिर वे चाहे बॉलीबुड की फिल्में हो या
समांतर सिनेमा की फिल्में।
यह तो सर्वज्ञात है कि कोई भी भाषा किसी अन्य माध्यम/विधा में व्यवहृत
होते ही, एक अलग प्रकार की भूमिका में उतर जाती है, फिर वह चाहे
कविता-कहानी-नाटक-उपन्यास-निबंध में बरती जा रही हो, या रंगमंच, सिनेमा और
संगीत में। पर, यह भी होता ही है कि उसकी यह भूमिका कभी-कभी इतनी सघन,
तीव्र, गहरी,
एकाग्र और मौलिक हो सकती है कि उस पर अलग से सोचने की जरूरत महसूस होती
है। मणि कौल की फिल्मों में हिंदी की भूमिका पर, भाषा की भूमिका पर, अलग से
सोचने और
चर्चा करने की ऐसी ही जरूरत सचमुच महसूस होती है, क्योंकि वह सिने भाषा
में, सिने माध्यम में, भाषा का व्यवहार कुछ ऐसा सोचने और खोजने के लिए किया
जा रहा है जो
किसी मानवीय अर्थ और बोध को छवियों के साथ मिलकर बहुत गहरा कर रहा हो।
जब उसकी 'रोटी' फिल्म रिलीज हुई थी तो उसे यह कहकर बहुतों के द्वारा कोसा गया था कि वह अत्यंत शिथिल और उबाऊ है, कि उसके'विलंबित लय' वाले संवाद अत्यंत असहज लगते हैं। तब इस बात को भुला दिया गया था कि संवादों की इस प्रकार की अदायगी का अपना अर्थ और मर्म है। दुभार्ग्यवश मणि कौल के सिनेमा को लेकर यह बात इतनी बार दुहराई गई कि आम दर्शक का ध्यान तो उसकी ओर से कटता ही गया, जिन्हें हम प्रबुद्ध दर्शक कहेंगे वे भी उनके सिनेमा को लेकर उस तरह उत्साहित नहीं हुए, जिस तरह कि होना चाहिए। उदयन वाजपेयी की एक पुस्तक 'अनेक आकाश' जरूर एक अपवाद की तरह सामने आई, और कुछ कवियों-लेखकों सिने-प्रेमियों की वे टिप्पणियाँ भी जो मणि कौल के सिनेमा को 'खारिज' करने की जगह उसकी खोज-परक यात्रा को समझने का यत्न करती हुई मालूम पड़ीं।
यह भी कम दुर्भाग्य की बात नहीं थी कि मणि कौल के सिनेमा को लेकर यह धारणा भी बनी, बनाई गई - और प्रचारित भी हुई - कि उनका सिनेमा पश्चिम के फिल्मकारों से प्रेरित सिनेमा है। जबकि स्थिति यह है कि वह फेलिनी, इंगमार बर्गमैन, फ्रांसुआ त्रुफो, गोदार आदि-आदि के सिनेमा से कहीं रोल नहीं खाता। हाँ, उसमें ऋत्विक घटक के सिनेमा की 'प्रतिध्वनियाँ' अवश्य हैं, जो मणि कौल के 'गुरू' और पथ प्रदर्शक थे। अच्छी बात यह भी है कि मणि 'प्रतिध्वनियों' पर ही नहीं रुके, अपनी तरह की सिने-भाषा की खोज में लगे रहे। प्रसंगवश, यहाँ यह भी याद करने की जरूरत है कि मणि कौल का संगीत से गहरा संबंध था और उन्होंने स्वयं ध्रुपद सीखा, और अंनतर कुछ देशी-विदेशी शिष्यों को सिखाया भी। यह स्वाभाविक ही था कि सिनेमा में भी वह शब्द-भाषा को सांगीतिक रचना का-सा आधार देकर, भाषा-मर्म की कई तहों को टटोलते-खँगालते। 'सिद्धेश्वरी देवी' जैसी वृत्तात्मक फिल्म में मणि कौल ने बनारस के घाटों, गंगा, और इमारतों के भीतर-बाहर के दृश्यों को जिस तरह फिल्माया है, और शब्दों की बारी आने पर, इन सबके बीच उन्हें तैयारा-गुंजाया है, उसका मर्म फिल्म देखते हुए ही समझा जा सकता है - उसे लिखकर बताना बहुत मुश्किल ही है। सो, वह यत्न में नहीं करूँगा। अपने को एक बार यह-याद जरूर दिलाऊँगा कि अगली बार जब भी 'सिद्धेश्वरी' को देखने का अवसर आए तो उसमें शब्द-व्यवहार को लेकर अपनाए गए दृष्टिकोण को लेकर और सजग रहूँ। स्मृति के आधार पर - फिल्म की स्मृति के आधार पर - अभी तो एक चीज का ध्यान और गहरा रहा है कि मणि ने अपनी फिल्मों में शब्द को 'प्रहरों' के आधार पर जिस तरह बरता है, उस पर भी ध्यान जाना ही चाहिए। कोई पहर रात का है, दिन दुपहर-शाम का है, और वह क्या करूँ ... क्या करूँ ... कह' रहा है और शब्द-माध्यम से (छवियों के बीच) उस पर और क्या कसर या 'कहलवाया' जा सकता है, इस पर उनकी पकड़ अचूक रहती है।
यह भी गौर करने वाली बात है कि मणि कौल की जिन फिल्मों में, शब्द-व्यवहार गौण है - जैसे कि 'माटी मानस' में, वहाँ भी छवियों को फिल्मकार के द्वारा भाषा में ही सोचा जा रहा है - 'माटी मानस', दृश्यों का, माटी निर्मित चीजों का, फिल्मांकन मात्र नहीं है, पर दृश्य कुछ कह रहा है, और उस दृश्य के पीछे से भाषा मानों बिन बोले भी, बोल रही है, हमें गहरे में स्पर्श भी कर रही है। यह एक 'जादू' है, जिसे मणि ने लाघव के साथ साधा है। अगर ऐसा न होता, हर दृश्य एक 'क्या' भी न करूँ रहा होता, तो 'माटी मानस' जैसा लंबा वृत्त-चित्र, एक फीचर फिल्म का-सा आनंद हमें न दे पाता। 'सतह से उठता आदमी' ही भाषा के 'अचूक' और नितांत नए तेवरों के कारण अपूर्व है ही।
मणि की अपनी भाषा तो कश्मीरी थी, पर, जब हिंदी को उन्होंने बरता तो उसमें इतना गहरे पैठकर बरता, कि उस पर तो कोई अलग से भी'अध्ययन' कर सकता है। मैं यह टिप्पणी, अपनी बेटी वर्षिता के यहाँ, त्रांदाइम (नार्वे) में बैठकर लिख रहा हूँ, जहाँ फिलहाल इस बात का अवकाश नहीं है कि मैं मणि कौल की कुछ फिल्मों को पुनः देखता, और कुछ अधिक संदर्भ-सामग्री जुटाता। मणि पर लिखे गए लेखों और टिप्पणियों की प्रतिलिपियाँ भी नहीं हैं, जो भारत में घर पर हैं। पूरी टिप्पणी स्मृति के आधार पर लिखी है, और उन चीजों के आधार पर, जो मन में बसी हुई हैं - मणि के सिनेमा को लेकर।
और कह सकता हूँ कि 'स्मृतियाँ' कई हैं - सिद्धेश्वरी देवी के फिल्मांकन के बीच मीता वशिष्ठ का स्वर जिस तरह तरंगित होकर एक-एक शब्द को ध्वनित करता है, और स्वयं अभिनेत्री की देह जिस तरह जल की सतह के भीतर-ऊपर तरंगित होकर देह-भाषा से भी बहुत कुछ कहती है - और देह - भाषा और शब्द भाषा, अपनी अपनी तरंगों में अलग होते हुए, कहीं मिल भी जाते हैं, वह अपूर्व है। शब्द भाषा से कब, कैसा, और कितना, काम लेना है,इस पर मणि का सोच निश्चय ही एक अलग प्रभाव डालता है। छवियों के सिलसिले में 'दुविधा' का 'गुड़ प्रसंग' ने भी मुझे बहुत आकर्षित किया था।
मणि के साथ अपनी मुलाकातों की भी कई स्मृतियाँ हैं। एक बार मणि, मैं, चित्रकार मनजीत बाबा, और दो-एक अन्य मित्र कार से चंडीगढ़ और फिर वहाँ से जालंधर गए थे, और साथ ही दिल्ली लौटे थे। मणि की दृष्टि बेधक थी। वे बातें करते थे। मुखर थे। जालंधर के रास्ते में जब हम कहीं कुछ खाने-पीने के लिए किसी ढाबे पर रुकते थे, तो किसी दृश्य, वस्तु, व्यक्ति, प्रसंग, पर उनकी टिप्पणी देखने-सुनने वाली होती थी। कुछ स्मृतियाँ किसी चित्र-प्रदर्शनी को साथ-साथ देखने की भी हैं। हम 'स्मृतियों' के विवरणों को कुछ भूल भी जाते हैं। और बातचीत भी हूबहू कहाँ याद रहती है। पर, स्मृति में किसी से मिलने-बातियाने' का और उस 'सुख' का एक बोध बना रहता है। वही बोध मणि से 'मिलने' का मन में बना हुआ है।
क्या मणि अपने सिनेमा में भी स्मृति (यों) के 'बोध' की बात ही नहीं करते, ओर नैरेटिव के बोझ को उतारकर फेंक नहीं देते। और जब शब्द-भाषा के माध्यम से किसी संवाद या उच्चारण को रखते हैं तो बस स्मृति के, उसके मर्म को गहरा करने के लिए ही रखते हैं - शब्दों का कोई अपव्यय किए बिना!
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