भारतीय सिनेमा के विकास में बंगालीभाषी और मराठीभाषी समाज का विशिष्ट
योगदान रहा है। सिनेमा का जन्म सन 1896 में माना जाता है। बंगाल के हीरा
लाल सेन सन 1902 से
ही फिल्मों के प्रति आकर्षित हो गए थे। उन्होंने कई फिल्मों का आयात किया
और इस नए आविष्कार को वे राजा-महाराजाओं के दरबार तक ले गए और वहाँ इन
फिल्मों का
प्रक्षेपण-प्रदर्शन किया।
सन 1913 में दादा साहब फाल्के ने भारतीय सिनेमा को जमीन प्रदान की और
भारतीय सिनेमा के मूक युग का आरंभ हुआ। इस युग के अनेक व्यवसाई फिल्मकारों
के साथ-साथ जिन
समर्थ फिल्मकारों का नाम लिया जाता है उनमें दो नाम प्रमुख हैं - बाबूराव
पेंटर और धीरेंद्रनाथ गांगुली। दोनों ने यथार्थपरक और सार्थक फिल्में
बनाईं।
सिनेमा में ध्वनि के आगमन की आहट सुनाई देने से पूर्व ही कलकत्ता का न्यू थिएटर्स आकार ले चुका था और फिल्म उद्योग को नया रंग देने की तैयारी शुरू हो चुकी थी। न्यू थिएटर्स के दो आरंभिक बड़े निर्देशक थे, देवकी बोस और नितिन बोस।
सन 1935 में पच्चीस-छब्बीस वर्ष की आयु में बिमल राय ने न्यू थिएटर्स में नौकरी की शुरुआत की। आरंभ में वे नितिन बोस के सहायक कैमरामैन रहे लेकिन जल्दी ही उन्हें स्वतंत्र कार्यभार सँभालने का अवसर मिल गया। स्वतंत्र छायाकार के तौर पर बिमल राय की पहली फिल्म प्रमथेश नाथ बरुआ द्वारा निर्देशित 'मुक्ति' थी।
सन 1939 में द्वितीय महायुद्ध आरंभ हो गया और कलकत्ता युद्ध की जद में आ गया। सन 1940 से 1945 के बीच के समय में कलकत्ता शहर के नागरिकों ने सिनेमाघरों को अपना आश्रय स्थल बनाया। जहाँ तक फिल्म संबंधी जानकारी का प्रश्न है 'किस्मत' नामक फिल्म (अब कोलकाता) कलकत्ता के सिनेमाघर में तीन वर्ष तक हाउसफुल रही।
यही नहीं 1941-42 में आईं 'कंगन', 'बंधन' और 'झूला' फिल्में भी सुपरहिट रहीं। ऐसा लगता है कि 1940-46 के बीच के समय में भीड़ सिनेमाघरों पर टूट रही थी। उस समय के समाचार पत्रों तथा अन्य उपलब्ध सामग्री के आधार पर उस समय की मानसिकता पर शोध कार्य होना चाहिए। एक ओर भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने अंतिम चरण में था, दूसरी ओर आजाद हिंद फौज के स्वागत की तैयारी थी और तीसरी ओर फिल्मों के प्रति बढ़ता आकर्षण था।
ऐसे समय में सन 1944 में बिमल राय द्वारा निर्देशित प्रथम फिल्म 'उदेर पाथे' प्रदर्शित हुई। कहा जाता है कि इस फिल्म को देखने के लिए अपार जन समूह की उत्सुकता अभूतपूर्व थी। एक वर्ष बाद इसका हिंदी संस्करण 'हमराही' संपूर्ण भारत में प्रदर्शित हुआ।
सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक इकबाल मसूद ने लिखा है, 'मद्रास के स्टार थिएटर में मैंने बिमल राय की 'हमराही' फिल्म देखी। मद्रास में यही एक सिनेमाघर था, जहाँ हिंदी फिल्में दिखाई जाती थी। मैं एक सामान्य व्यावसायिक फिल्म देखने गया था। मैं फिल्म के निर्देशक या फिल्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता था।
'लेकिन फिल्म ने मुझ पर गहरा असर छोड़ा। शायद यह एक समाजवादी फिल्म थी। उन दिनों इंग्लैंड में समाजवाद आ चुका था लेकिन भारत के वामपंथी युवक खुद को अकेला पा रहे थे। सांस्कृतिक स्तर पर सब कहीं घटिया लोकप्रिय कला का बोलबाला था। मुझे आज भी स्मरण है कि'हमराही' ने मुझमें उत्साह का संचार कर दिया था।'
आज के समीक्षक 'हमराही' को रोमांटिक यथार्थवादी फिल्म कहते हैं। उस समय इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग आरंभ नहीं हुआ था। आज की शब्दावली में कहूँ तो 'हमराही' मुझे 'अपने समय से आगे की' या 'भविष्य की फिल्म' लगी थी। दूसरे शब्दों में कहूँ तो, 'जिस प्रकार के समाज में हम जी रहे थे और जिस भविष्य की हम कल्पना करते थे। उसके अनुरूप यह फिल्म थी। हम जवान थे और अच्छा लगता था कि फिल्म में एक लखपति की बेटी एक वामपंथी युवक से प्यार करती है।''
यह लंबा उद्धरण यह भी बताता है कि हमारे यहाँ अच्छी फिल्म समीक्षाओं का हमेशा अकाल रहा है। खोजने पर भी चौथे, पाँचवें या छठे दशक की फिल्मों पर प्रबुद्ध दर्शकों की तात्कालिक या समकालीन टिप्पणियाँ हमें नहीं मिल पातीं। अपनी प्रथम फिल्म से ही बिमल राय समर्थ निर्देशक के रूप में स्थापित हो गए थे।
'हमराही' मूलतः एक शोषक राजेंद्रनाथ तथा एक शोषित अनूप की कथा है। यह पहली हिंदी फिल्म थी, जिसमें शोषक तथा शोषित का द्वंद्व साफ होकर उभरा था। अनूप एक शिक्षित बेरोजगार युवक है और अपनी माँ तथा बहन के साथ रहता है। अनूप की बहन सुमित्रा एक दिन अपनी सहेली गोपा के घर एक खुशी के अवसर पर जाती है। इस पार्टी में धनाढ्य वर्ग के लोग एकत्रित हैं। सुमित्रा पर चोरी करने का आरोप लगा दिया जाता है और वह अपमानित होकर घर लौट आती है।
इधर बेरोजगार अनूप को काम मिल जाता है। उसी का एक लेखक मित्र जो एक पत्रिका का संपादक भी है, अनूप को बताता है कि राजेंद्रनाथ नाम के करोड़पति को एक प्रचार अधिकारी चाहिए। इस प्रचार अधिकारी का काम है, करोड़पति के लिए भाषण तैयार करना। अनूप यह काम स्वीकार कर लेता है। राजेंद्रनाथ को भी अनूप का काम पसंद आता है। अनूप द्वारा लिखे गए भाषणों को सभाओं में सुनाकर राजेंद्रनाथ बहुत लोकप्रिय हो जाता है। एक दिन जब अनूप इस मिल मालिक की लाइब्रेरी में बैठकर अपना काम कर रहा है, उसकी भेंट गोपा से होती है। गोपा, राजेंद्रनाथ की बहन है और सुमित्रा की वही सहेली है जिसने उसे अपने घर पार्टी पर बुलाया था। यह पता लगते ही कि इसी घर में उसकी बहन का अपमान हुआ था, अनूप तुरंत नौकरी छोड देता है।
राजेंद्रनाथ का काम अनूप के बिना चल नहीं पाता। अनूप ने एक उपन्यास भी लिखा है, जिसे वह छपवाना चाहता है। राजेंद्रनाथ अनूप के घर आता है और उससे मित्रता करके उसे अपने साथ ले जाता है। साथ ही वह अनूप द्वारा लिखे गए उपन्यास की पांडुलिपि भी इस आश्वासन के साथ ले जाता है कि शीघ्र ही अनूप के उपन्यास को प्रकाशित करवा देगा। राजेंद्रनाथ की बहन गोपा पांडुलिपि देख लेती है, उसे यूँ ही उलटती पलटती है तथा अनिच्छुक पाठक की तरह पढ़ने लगती है। ज्यों-ज्यों वह उपन्यास को आगे पढ़ती जाती है उपन्यास उसे अपनी लपेट में ले लेता है और वह पूरा उपन्यास पढ़ डालती है। अनूप द्वारा लिखे उपन्यास को पढ़कर गोपा का परिचय जीवन के उस पक्ष से होता है जो अब तक उसके लिए नितांत अपरिचित रहा है। यह उपन्यास मजदूरों की रोजमर्रा जिंदगी तथा पूंजीपतियों द्वारा उनके शोषण के बारे में है। उपन्यास पढ़ लेने के बाद गोपा, गुप्त रूप से मजदूरों की सभाओं में भी जाने लगती है।
इस बीच राजेंद्रनाथ, अनूप का उपन्यास अपने नाम से छपवा लेता है, और उसकी ख्याति एक पूंजीपति तथा एक विचारक लेखक के रूप में फैल जाती है। गोपा अपने भाई के इस कुकृत्य को जान लेने के बाद उससे घृणा करने लगती है। एक दिन जब गोपा घर पर है तब वह राजेंद्रनाथ को टेलीफोन पर बातें करते सुनती है। राजेंद्रनाथ मजदूरों की एक सभा को भंग करने के आदेश दे रहा है। भले ही हिंसा का सहारा क्यों न लेना पड़े। इस सभा में अनूप भाषण दे रहा है। गोपा को सभास्थल पर पहुँचने में थोड़ी देर हो जाती है। राजेंद्रनाथ अपना काम करवा चुका है। सभा बिखर चुकी है। अनूप घायल होकर अचेतावस्था में लहूलुहान पड़ा है।
गोपा के पीछे-पीछे ही राजेंद्रनाथ भी पहुँच जाता है और अपनी बहन को घसीटकर घर ले आता है। गोपा का मजदूरों के प्रति प्रेम तथा अनूप से लगाव जगजाहिर हो जाता है। अगले दिन अखबारों में पूंजीपति की बहन तथा बेटी की मजदूरों से सहानुभूति के समाचार के लंबे विवरण छपते हैं। गोपा का भाई और पिता उसके समझाने का प्रयत्न करते हैं। गोपा के न मानने पर वे उसे एक कमरे में बंद कर देते हैं। इन सब घटनाओं से गोपा का अनूप के साथ रहने का निश्चय दृढ़ होता जाता है। अगले दिन जब अनूप इस शहर को छोड़कर दूसरी जगह जा रहा है तब गोपा भी उसी के साथ चल रही है।
बलराज साहनी ने अपनी फिल्मी आत्मकथा में लिखा है, 'उस जमाने में बंगाल में बिमल राय 'हमराही' बना रहे थे, जिसमें पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति व्यंग्य कूट-कूट कर भरा हुआ था। पर बिमल राय अंत तक यथार्थवाद को निभा पाने में सफल नहीं हो पाए थे। 'हमराही' के हीरो हीरोइन भी, जैसा कि न्यू थिएटर्स की फिल्मों में प्रायः हुआ करता था, अंतिम दृश्य में दूर क्षितिज की ओर जाते हुए दिखाई देते हैं, मानो संसार की समस्याओं का हल किस्मत पर छोड़ दिया गया हो।'
बिमल राय द्वारा निर्देशित अगली फिल्म 'परिणीता' थी। शरतचंद्र चटर्जी के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म में अशोक कुमार तथा मीना कुमारी ने अभिनय किया था। इस फिल्म के संवाद नबेंदू घोष ने लिखे थे। एक बैंक क्लर्क गुरूचरण अपने कई बच्चों के साथ रहता है। उसके ही बच्चों के साथ उसकी भांजी ललिता भी पल रही है। ललिता एक होशियार और सुघड़ लड़की है लेकिन गुरूचरण उसका विवाह करने की चिंता में डूबा रहता है, क्योंकि गुरूचरण का पुश्तैनी मकान उसके पड़ोसी नवीनचंद्र के पास गिरवी पड़ा है। नवीनचंद्र तथा गुरूचरण के परिवार आपस में स्नेह तथा सौहार्द्र के साथ अच्छे पड़ोसियों की तरह रहते हैं। ललिता भी नवीनचंद्र की पत्नी के पास बनी रहती है और घर के काम-काज में भी हाथ बँटा देती है। ललिता का एक काम नवीनचंद्र के पुत्र शेखर के कमरे को ठीक-ठाक रखना भी है। शेखर को वह अपना दोस्त मानती है और वक्त जरूरत उसके बटुए से पैसे भी निकाल लेती है। ललिता का एक अन्य परिवार में यानी मनोरमा के घर भी आना-जाना है। मनोरमा के घर वह खाली समय में ताश खेलने जाती है। मनोरमा का एक भाई है गिरिन। एक दिन मनोरमा का परिवार पिकनिक पर जाने तथा दिन भर घर से बाहर घूमने की योजना बनाता है। जब यह समाचार शेखर को मिलता है तब वह उद्वेलित हो उठता है। शेखर की परेशानी के कारण का पता चलते ही ललिता मनोरमा के परिवार के साथ बाहर जाने से इनकार कर देती है। इन्हीं क्षणों में शेखर यह महसूस कर पाता है कि ललिता की निकटता अब प्यार में बदल चुकी है।
नवीनचंद्र अपने देनदार गुरूचरण से कर्ज की रकम जल्दी चुका देने का आग्रह करता है। गुरूचरण के घर गिरिन अब ज्यादा आने-जाने लगा है। गुरूचरण एक दिन नवीनचंद्र का ऋण चुकाकर मकान छुड़ा लेता है। गुरूचरण के घर में विवाह का आयोजन हो रहा है। विवाह की तैयारियाँ देखकर शेखर समझता है कि गिरिन का विवाह ललिता से हो गया है। वास्तव में गिरिन ने गुरूचरण की एक अन्य बेटी से विवाह किया है। ललिता स्वयं को शेखर की वाग्दत्ता मानती है। जैसे ही शेखर पर यह भेद खुलता है वह तुरंत ललिता को अपनी माँ के पास ले जाता है ताकि वह अपनी भावी पुत्रवधू को आशीर्वाद दे सके।
अपनी अगली फिल्म 'दो बीघा जमीन' में बिमल राय ने सामाजिक विषमता को दर्शाने वाला कथ्य चुना था। यही एकमात्र फिल्म है जो 'हमराही'की परंपरा में आती है। 'दो बीघा जमीन' में हम शरतचंद्र के औपन्यासिक पात्रों की मध्यवर्गीय दुनिया से निकलकर एक किसान की समस्याओं को देखने समझने का अवसर पाते हैं। 'दो बीघा जमीन' को देखकर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था कि भारत किसी अन्य प्रकार से न सही लेकिन राजनीतिक दृष्टि से एक नव स्वतंत्र देश है। इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश के आर्थिक विकास को इस क्रूर निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात है।
'दो बीघा जमीन' की कहानी सलिल चौधरी, पटकथा ऋषिकेश मुखर्जी और गीत शैलेंद्र ने लिखे थे। शायद यह क्रूर सी दिखने वाली फिल्म बिमल राय ही बना सकते थे जिन्होंने 1941-42 में 'हमराही पर काम किया था इसी कारण बीते दस वर्षों में भारत ने विकास की जो दिशा ग्रहण की थी, उसकी विवेचना कर पाने में समर्थ थे।
'दो बीघा जमीन' एक ऐसे किसान की कहानी है जो गाँव का सबसे सुखी किसान है, क्योंकि वह खुदकाश्त है। किसी की जमीन पर मजदूरी नहीं करता लेकिन जमींदार गाँव की सारी जमीन एक उद्योगपति को बेच देना चाहता है। इसमें शंभू की 'दो बीघा जमीन' बाधा बनती है। जमींदार शंभू को बुलाकर बताता है कि उस पर दो सौ पैंतीस रुपये का कर्ज है जो उसे कल तक चुका देना चाहिए। लेकिन शंभू को अदालत से तीन माह का समय मिल जाता है।
शंभू अपने बेटे कन्हैया को साथ लेकर और अपनी पत्नी पार्वती को गाँव में ही छोड़कर पैसे कमाने के लिए, कलकत्ता चला आता है। पित्रा पुत्र दोनों कड़ी मेहनत करते हैं, चोरी करने या न करने के अंतर्द्वंद्व के शिकार होते हैं, अस्वस्थ होते हैं, लेकिन अपने काम में जुटे रहते हैं। इन प्रसंगों में बिमल राय ने कलकत्ता शहर के चरित्र को उजागर किया है। सन 1956 में जब वेनिस फिल्म समारोह में यह फिल्म दिखाई गई तो पश्चिमी दर्शक कलकत्ता शहर को देखकर चकित हो गए। एक अमेरिकी आलोचक ने अपने लेख में भारत की इस खूबी का वर्णन किया है कि जहाँ शहर की सड़कों पर,आ जा रही कारों के बीच, गाएँ और भैसें भी आती-जाती रहती हैं।
दरअसल 'दो बीघा जमीन' में पहली बार एक शहर, कथा को आगे बढ़ाने का बहाना भर बनकर नहीं, बल्कि अपनी अस्मिता के साथ सिनेमा के पर्दे पर उपस्थित हुआ था। इस परिवर्तन को भी कई लोगों ने महसूस किया। सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक इकबाल मसूद ने अपने लेख, 'द फिफ्टीज, द सिटी : पैराडाइज एंड इनफर्नों' में लिखा था, 'बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' का कलकत्ता हिंदी के लोकप्रिय सिनेमा में दिखाई दिया पहला उल्लेखनीय शहर भी है। यह उजड़े हुए गैर-बंगाली किसान की आँखों से देखा गया कलकत्ता है, जो इस शहर में पैसे कमाने तथा पूंजीपति जमींदार से अपनी जमीन छुड़वाने आया है। यह फुटपाथों और काम के बोझ से थक गए रिक्शा वालों का कलकत्ता है। बिमल राय की यह फिल्म शहर को अस्थायी मजदूर तथा सर्वहारा के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करती है। ऐसी कोशिशें सिनेमा में बहुत कम हुई हैं।'
शरतचंद्र के उपन्यास 'बिराज-बहू' पर आधारित फिल्म में बिमल राय ने नायिका के व्यक्तित्व को उभारने का सफल प्रयत्न किया। बिराज एक गरीब परिवार की बहू है। वह मिट्टी के खिलौने बनाकर परिवार की आय में अपनी ओर से भी योगदान देती है। बिराज न केवल सर्वगुण संपन्न है बल्कि वह बहुत सुंदर भी है। इसी सुंदरता पर गाँव का जमींदार रीझ जाता है और उसका अपहरण कर लेता है। इस विषय को कई फिल्मकारों ने अपनी तरह से छुआ है। इन कथाओं में स्त्री निरपराध होते हुए भी दोषी मानी जाती है और इस की सजा उसे अपने प्राण देकर ही चुकानी पड़ती है।
'बिराज बहू' में नीलांबर और पीतांबर की पत्नियों के सौहार्द्र को बिमल राय ने लगन से फिल्माया है। भले ही दोनों स्त्रियाँ शरीर से घर को बाँटने वाली दीवार को पार नहीं कर सकतीं। उनका स्नेह इस दीवार के अस्तित्व को मिटा देता है। फिल्मांकन में उनका आपसी स्नेह सशक्त होकर उभरता है।
'बिराज बहू' फिल्म बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों के ग्रामीण जीवन, संयुक्त परिवार और पति-पत्नी संबंधों का प्रमाणिक चित्र प्रस्तुत करती है। उस समाज में यह संभव था कि कोई स्त्री एक बुरे पुरुष को डाँट सकती थी और वह पुरुष प्रत्युत्तर न देकर चुप रहता था। बिराज बहू ने जिस बात पर जमींदार को डाँटा, जब बिराज बहू का पति यह कहता है कि वह जमींदार से यह शिकायत करेगा कि वह दिन भर वहाँ क्यों खड़ा रहता है जहाँ से गाँव की स्त्रियाँ पानी लाती है। तब वह उसे बरज देती है क्योंकि वह जानती है कि यहाँ पुरुषों का अहंकार आड़े आ जाएगा। कुतर्क से बचने के लिए यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि कोई भी समीक्षक यह नहीं कह रहा कि 'बिराज बहू' का गाँव आदर्श गाँव है या उस जीवन और समाज में अनेक बुराइयाँ नहीं थीं।
यह सही है कि आज हम उस जीवन पद्धति से बहुत आगे निकल आए हैं। 'बिराज बहू' में राम-सीता के मिथक द्वारा कथा कही गई है। उपन्यासकार शरतचंद्र की सोच इस फिल्म को शक्ति भी प्रदान करती है और कमजोर भी बनाती है। यही क्या कम है कि यह फिल्म देखकर 'पाथेर-पांचाली' का स्मरण हो आता है। यह भी सच है कि बिमल राय उस स्तर तक कहीं पहुँच पाते।
सन 1955 में बनी बिमल राय की 'देवदास' सन 1935 में बनी प्रमथेश चंद्र बरुआ, सहगल और जमना की 'देवदास' की तुलना में वाकई बेहतर और चुस्त फिल्म थी। इस फिल्म से जुड़े सभी लोगों ने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया था। इस फिल्म से हिंदी सिनेमा की उस समय की बहुत-सी दिग्गज प्रतिभाएँ जुड़ी थीं। दिलीप कुमार देवदास बने थे, पार्वती की भूमिका सुचित्रा सेन ने की थी, वेश्या चँद्रमुखी के पात्र को वैजयंतीमाला ने और देवदास के कलकत्ता के मित्र चुन्नीलाल की भूमिका को मोतीलाल ने जीवंत कर दिया था। गीत साहिर लुधियानवी ने लिखे थे, संगीत सचिन देव बर्मन का था। पटकथा तथा संवाद नबेंदू घोष और राजेंद्र सिंह बेदी के थे।
'देवदास' की अपार सफलता के कारणों से बिमल राय भली भाँति परिचित थे। वे जानते थे कि फिल्म की तुलना फिल्म से ही की जाती है। शरतचंद्र के उपन्यास 'देवदास' को पढ़ने के बाद फिल्म देखने वाले लोग इक्का दुक्का ही होंगे। बिमल राय ने कहा था, 'शरतचंद्र' के उपन्यासों पर फिल्म बनाना मेरे लिए सर्वाधिक आनंददायी कर्म है। हालाँकि किसी भी साहित्यिक उपन्यास पर फिल्म बनाना तनी हुई रस्सी पर चलने के समान है। जब भी फिल्म का किसी उपन्यास में फिल्मांकन की जरूरतों के अनुसार बहुत छोटी सी छूट भी लेता है तो साहित्य प्रेमी कराह उठते हैं। मुझे शरतचंद्र के उपन्यासों पर तीन फिल्में 'बिराज बहू', 'परिणीता' और 'देवदास' बनाने का अवसर मिला है।
'शरतचंद्र के उपन्यासों के प्रत्येक पात्र के अनेक पाठ संभव हैं। पात्र को पाठक अपने नजरिए से व्याख्यायित करता है। इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं है कि पाठक, फिल्मकार की व्याख्या से सहमत न हो लेकिन फिल्मकार को उसकी अपनी व्याख्या के लिए दोषी ठहराना क्या उचित होगा?
'दूसरी ओर एक बुरी परिपाटी यह भी है कि शरतचंद्र के उपन्यासों पर बनी फिल्मों को तुलना उससे पूर्व बनी फिल्मों ही के साथ की जाती है। फिल्म पत्रकारों और फिल्म समीक्षकों की टिप्पणियाँ इसी प्रकार की होती हैं। बहुत ही कम प्रबुद्ध दर्शक ऐसे होंगे जो शरतचंद्र का उपन्यास पढ़कर, उस पर मनन करने के बाद, उस उपन्यास पर आधारित फिल्म देखें और सीधे उपन्यास के साथ फिल्म को जोड़ें। तमाम कठिनाइयों के बाद भी यदि मुझे शरतचंद्र की एक और उपन्यास पर फिल्म बनाने का अवसर मिलेगा तो यह मेरा सौभाग्य होगा।'
यह बात सही है कि 'बिराज बहू' के पति के पात्र को कई कोणों से देखा जा सकता है वह अपनी पत्नी से बेहद प्यार करने वाला उसका अत्यंत आदर करने वाला पति है लेकिन व्यावहारिक जीवन में असफल और (यदि आधुनिक दृष्टि से परखा जाए तो) एक निकम्मा पुरुष है आदि-आदि। यही अनेकों कोण संवेदनशील समीक्षक या पाठक के समक्ष व्याख्या की चुनौतियाँ प्रस्तुत करते हैं। सबसे आसान काम है कि 'बिराज बहू' को दांपत्य जीवन की सीधी-सरल-अनउलझी कथा कहकर खारिज कर दिया जाए।
'यहूदी' फिल्म की पटकथा नबेंदू घोष की थी और संवाद वजाहत मिर्जा के। आगा हश्र कश्मीरी की कहानी के अनुसार मोजेस ने क्रोधित होकर यहूदियों को अविश्वास का श्राप दिया था, उसी दिन से यहूदी सारी मानवजाति की घृणा और उपेक्षा के पात्र हैं। शापित यहूदी जगह-जगह भटक रहे हैं। वे किसी भी देश के नागरिक नहीं हैं।
एजरा एक यहूदी व्यापारी है। रोम में वह प्रतिष्ठित है लेकिन एक दिन जब रोम का राजा ब्रूटस रास्ते से जा रहा है तभी एजरा के पुत्र द्वारा अनजाने में एक ईंट गिर जाती है। ब्रूटस आदेश देता है कि यह हमला किसने किया फलतः एजरा के बेटे को पकड़ लिया जाता है और मौत के घाट उतार दिया जाता है। इधर एजरा का नौकर इलियास (तिवारी) रात के अंधेरे में ब्रूटस (नासिर हुसैन) की बेटी को उठा लाता है। एजरा को इस बालिका में अपने पुत्र की प्रतिछाया दिख पड़ती है। पंद्रह वर्ष गुजर जाते हैं। इस बीच रोमन सैनिक यहूदियों पर अत्याचार करते रहे हैं। अब हान्ना (मीना कुमारी) बीस वर्ष की है। एक दिन रोम का राजकुमार घर लौट रहा है उसका रथ उलट जाता है और वह लुढ़कता हुआ नीचे गिर पड़ता है। होश में आने पर वह हान्ना को देखता है।
शहजादा मारकस - 'कहाँ हूँ मैं - जमीन पर या जन्नत में (रोमन राजकुमार)
हान्ना - मुँह बंद रखिए आगे ही कीचड़ लगा रखा है उस पर....'
(यहूदन)
अब मारकस यहूदी का वेश धरकर हान्ना के घर पहुँच जाता है। एजरा उसे अपने शिष्य की भाँति अपना लेता है। यहाँ मारकस का नाम मंशिया है।
यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि मारकस मंशिया होना चाहता है या मारकस ही रहना चाहता है। मारकस के बदले हुए व्यवहार से उसकी मंगेतर ऑक्टेविया भी चिंतित है। एक दिन ऑक्टेविया यहूदी व्यापारी एजरा के घर हीरे खरीदने आती है उस समय मारकस वहाँ मंशिया के रूप में उपस्थित है। एजरा इन शाही मेहमानों को हीरे-जवाहरात दिखाने का आदेश देकर चला जाता है।
मारकस अपना चेहरा छुपा रहा है। यह एक छोटा सा हास्य दृश्य तो है ही, इसमें त्रासदी भी है। मारकस अपनी मंगेतर से आँखें चुरा रहा है। यानी वह अपना सुरक्षित महल छोड़कर इस असुरक्षित घर को अपना ठिकाना बनाना चाह रहा है। अपनी पहचान संदिग्ध बना रहा है। क्योंकि इस घर में यदि वह 'पहचान' लिया गया तो अजनबी हो जाएगा। दूसरी ओर आक्टेविया के सम्मुख बेजान हीरे बिखरे पड़े हैं लेकिन वह अपनी तेज नजर और सहज मेधा से जान लेती है कि असली हीरा उसके हाथ से छूटकर हान्ना की झोली में जा गिरा है।
सन 1959 में उन्होंने 'सुजाता' का निर्माण और निर्देशन किया। उपेंद्रनाथ चौधरी और उनकी पत्नी चारु, एक अछूत लड़की सुजाता को गोद ले लेते हैं। सुजाता के माता पिता एक महामारी के शिकार हो चुके हैं। 'सुजाता' इसी परिवार में पलती और बड़ी होती है लेकिन उसके अछूत होने की पहचान इस परिवार को बेचैन बनाए रखती है। चारु और उपेंद्रनाथ की एक अपनी बेटी रमा भी है। रमा और सुजाता दोनों ही केवल बहनों की तरह ही नहीं बल्कि दो बहुत अच्छे मित्रों की तरह रहती हैं। सुजाता का मधुर व्यवहार ही उसे इस घर में टिकाए रखता है, वरना चौधरी परिवार तो कई बार यह प्रयत्न कर चुका है कि सुजाता को किसी भी तरह इस घर से निकाल दिया जाए।
चारु की एक सहेली गिरिबाला भी, चारु को यह चेतावनी दे चुकी है कि घर में एक अछूत को घर के एक सदस्य की तरह ही रखने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। गिरिबाला और चौधरी परिवार दोनों ही इस बात पर एकमत हैं कि रमा का विवाह गिरिबाला के पोते अधीर से हो जाए लेकिन अधीर स्वयं सुजाता को पसंद करता है। समस्या विकट होती जाती है। दोनों परिवारों के सदस्यों में सुजाता के प्रति कड़ुवाहट बढ़ती जाती है। इधर अधीर और सुजाता एक दूसरे के साथ जीने और मरने का निश्चय कर लेते हैं। एक दिन चारु सीढ़ियों से फिसलकर गिर जाती है और बुरी तरह घायल हो जाती है। केवल सुजाता का खून ही उसे बचा सकता है और सुजाता अपना रक्त देती है। चारु और सुजाता के रक्त वर्ग की समानता ही चारु में यह चेतना जगाती है कि छूत-अछूत की समस्या को मानव ने अपने क्षुद्र स्वार्थो की पूर्ति हेतु निर्मित किया है। मानवीय अस्तित्व इस प्रकार के भेद स्वीकार नहीं करता।
सन 1960 में निर्देशित 'परख' में बिमल राय एक अछूता विषय उठाते हैं। 'परख' स्वतंत्र भारत के तीसरे आम चुनाव से पहले प्रदर्शित हुई थी। यह फिल्म भारत की चुनावी राजनीति पर तीखा व्यंग्य करती है। राधानगर नाम के छोटे से गाँव के पोस्टमास्टर को पाँच लाख रुपये का चेक मिलता है। चैक पर जे.सी. राय के हस्ताक्षर हैं और यह निर्देश संलग्न है कि इस धनराशि को गाँव के सब से अच्छे आदमी को दे दिया जाए। पोस्टमास्टर की पूरी रात बेचैनी में कटती है। सुबह वह गाँव के पाँच ऐसे लोगों को बुलाता है, जो गाँव के प्रभावशाली व्यक्ति माने जाते हैं। जमींदार तांडव तरफदार, महापंडित तर्क अलंकार, गाँव के मजदूरों के नेता हरिहर कुंज, गाँव के स्कूल का मास्टर रजत और गाँव के डॉक्टर हरी-इन्हीं पांचों में से सर्वोत्तम का चुनाव किया जाना है।
तुरंत चुनावी राजनीति और सरगर्मियाँ शुरू हो जाती हैं। शांत गाँव तरह-तरह के शोर शराबे में डूब जाता है। जमींदार ढोल ताशे बजाकर यह घोषणा करवा देता है कि उसने सब कर्जे माफ कर दिए हैं। साहूकार एक कुशल इंजीनियर को बुलवाता है तथा तुरंत गाँव में नलकूपों की खुदाई का काम शुरू करवा देता है। मास्टर रजत पूर्ववत गाँव की सेवा में लगा रहता है और गाँव वालों के छोटे-मोटे काम करता रहता है। डॉक्टर यह घोषणा करता है कि उस के दवाखाने पर दवा निःशुल्क मिलेगी और पंडितजी भविष्यवाणी करते हैं कि इस गाँव पर लक्ष्मी की अपार कृपा होने वाली है।
पूरे गाँव के लोग इन खानदानी शोषकों के अचानक दयावान हो जाने पर चकित हो उठते हैं। इन खजानों के खुल जाने पर भी मास्टर रजत ही अपनी निस्वार्थ सेवा के कारण गाँव का लोकप्रिय व्यक्ति बना रहता है। पंडित तथा साहूकार मिलकर मास्टर रजत को बदनाम करने का कुचक्र रचते हैं और अगली रात को कुछ लोग युवक रजत तथा पोस्टमास्टर की लड़की सीमा को साथ-साथ देखते हैं। गाँव का पोस्टमैन हरधन इन सब घटनाओं पर निगरानी रखता है। अंततः यह फैसला हो जाता है कि गाँव का श्रेष्ठ व्यक्ति कौन है। हरधन अपनी वास्तविक पहचान बताता है और पता चलता है कि वही जे.सी. राय है। पाँच लाख रुपये रजत और सीमा को दे दिए जाते हैं।
सन 1963 में बिमल राय ने एक अत्यंत उत्तम कृति 'बंदिनी' का निर्माण एवं निर्देशन किया। 'बंदिनी' इस से पूर्व बिमल राय द्वारा निर्देशित'परिणीता' का ही तार्किक विस्तार है। यहीं यह भी दिखाई देता है कि 'परिणीता' से 'बंदिनी' तक पहुँचने में बिमल राय की सिनेमाई भाषा पर पकड़ कितनी मजबूत हुई है। 'बंदिनी' एक असाधारण फिल्म है। 'बंदिनी' की कहानी तो बहाना भर है। यह फिल्म सिनेमा की भाषा में रची गई एक सुंदर कविता है। कल्याणी नाम की युवती अपने गाँव में कैद हो कर आए एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी विकास घोष से प्यार करने लगती है। विकास घोष और कल्याणी का प्यार बढ़ता है और जब विकास घोष को दूसरी जेल में ले जाया जाता है तो जाने से पहले विकास घोष, कल्याणी को अपनी पत्नी मानकर स्वीकार करता है।
पूरा गाँव जानता है कि कल्याणी अब विकास घोष की पत्नी है। लेकिन वर्षों गुजर जाते हैं और विकास घोष की कोई खबर ही नहीं आती। एक दिन यह खबर मिलती है कि स्वतंत्र होने के बाद विकास घोष ने विवाह कर लिया है और दूसरे शहर में रहने लगा है। गाँव वाले कल्याणी तथा उस के पिता का मजाक उड़ाने लगते हैं। परेशान होकर कल्याणी अपना गाँव और घर छोड़ देती है। अपने ही विचारों में कैद, अपनी ही दुविधा में उलझी कल्याणी शहर पहुँचकर एक दुर्घटना में फँस जाती है और कैदी बन जेल पहुँच जाती है। सभी इस सीधी सरल लड़की को देखकर चकित होते हैं। जेल का डॉक्टर देवेंद्र तो कल्याणी से प्यार करने लगता है लेकिन कल्याणी सिर्फ एक सवाल के घेरे में कैद है, क्या अब भी वह विकास की पत्नी है या नहीं यदि विकास ने अपना वचन तोड़ दिया है तो क्या वह भी इस बंधन से मुक्त हो गई है कैद से तो वह अपने अच्छे व्यवहार के कारण छूट जाती है लेकिन इस सवाल की बंदिनी बनी रहती है। बिमल राय अपनी इस फिल्म में संकेतों द्वारा गहनतम मनोभावनाओं को अभिव्यक्ति देने में सफल हो सके हैं 'बंदिनी' बिमल राय की सर्वोत्कृष्ट कृति है।
बिमल राय की फिल्मों पर उसी स्तर का या बेहतर समीक्षाकर्म संभव है जैसा कि शेखर एक जीवनी और कामायनी पर हुआ है। हिंदी की तथा विश्व की क्लासिक फिल्मों के अध्ययन-अध्यापन से नई रचनात्मकता का विकास संभव है। आज साधनों का अभाव नहीं है लेकिन कहीं इच्छा शक्ति की कमी है। नई विधा पर अध्ययन आरंभ करने में अध्यापकीय संकोच भी एक बाधा है। आशा है इन बाधाओं से पार पाया जा सकेगा।
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