साल 2014 जिन शख्सियतों की जिंदगी का अहम पड़ाव है, उनमें ग़ज़ल
साम्राज्ञी बेगम अख्त़र का नाम भी शामिल है. बेगम की याद में पूरे साल
देशभर में जलसे और संगीत कार्यक्रम होते रहे, क्योंकि यह उनकी पैदाइश का
सौंवा साल था. अगर सितारों के बीच कहीं से बेगम देख रही होंगी, तो फख्र कर
रही होंगी कि जिस माटी से उन्होंने मुहब्बत की थी, उसने उन्हें भुलाया नहीं
है
1951 में कोलकाता में हुए संगीत सम्मेलन में भी उन्होंने शिरकत की, जिसमें शास्त्रीय संगीत के बड़े-बड़े पुरोधा हिस्सा ले रहे थे. यहां भी वो बेहद कामयाब रहीं. आमजन के अलावा कई पंडितों-उस्तादों ने भी उनकी जी खोलकर तारीफ़ की. भारत रत्न मरहूम बिस्मिल्ला खां ने एक दफा बेगम अख़्तर की गायिकी के बारे में बात करते हुए कहा था- ‘बेगम अख़्तर के गले में एक अजीब कशिश थी. जिसे अकार की तान कहते हैं, उसमें अ करने पर उनका गला कुछ फट जाता था और ये उनकी ख़ूबी थी. मगर शास्त्रीय संगीत में यह दोष माना जाता है. एक बार हमने कहा कि बाई कुछ कहो. ज़रा कुछ सुनाओ. वे बोलीं-अमां क्या कहें, का सुनाएं. हमने कहा कुछ भी. बेगम गाने लगीं- निराला बनरा दीवाना बना दे. एक दफे, दो दफे कहने के बाद जब दीवाना बना दे में उनका गला खिंचा तो हमने कहा अहा ! यही तो सितम है तेरी आवाज़ का. वो गला दुगुन-तिगुन के समय लहरा के मोटा हो जाता था. वही तो कमाल था बेगम अख़्तर में.’
दोबारा गाना शुरू करने के बाद जल्द ही बेगम की ज़िंदगी पटरी पर आ गई थी. उनके पास लगातार गाने के प्रस्ताव आ रहे थे. लेकिन इसी बीच 1951 में ही उनकी मां मुश्तरी की मौत के बाद वो तीन-चार महीने फिर संगीत से दूर रहीं. सदमे में थीं. उनका ज़्यादातर वक्त लखनऊ के पसंदबाग़ स्थित अपनी मां की कब्र पर गुज़रा. उनकी ज़िंदगी में मां की भूमिका ही ऐसी थी, जिसकी पूर्ति संभव नहीं थी. बहरहाल तबीयत कुछ संभली तो उन्होंने फिर से गाना शुरू किया. 1952 में बेगम अख़्तर ने ऑल इंडिया रेडियो के अखिल भारतीय संगीत समारोह में शिरकत की और महफिल लूट ली. इसके बाद फिर से बेगम अख़्तर की शोहरत आसमान छूने लगी. रिकॉर्डिंग पर रिकॉर्डिंग होने लगीं. वो पूरे मुल्क में गाने के लिए बुलाई जाने लगीं. फिल्मों के ऑफर भी दोबारा आने लगे. मगर बेगम ने अभिनय पर हामी नहीं भरी. पार्श्वगायन भी नाचरंग (1953), दानापानी (1953) और एहसान (1954) जैसी कुछ ही फ़िल्मों के लिए किया. हालांकि जलसाघर (1958) में ज़रूर वो गायन के साथ-साथ स्क्रीन पर भी दिखीं, क्योंकि ये अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहचाने गए फिल्मकार सत्यजीत रे की फिल्म थी, जिनके आग्रह को बेगम ठुकरा नहीं पाईं. अब उन्हें विदेशों से भी न्यौते मिलने लगे थे. ख़ुद भारत सरकार उनसे सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडल का सदस्य बनने का आग्रह कर चुकी थी. 1961 में भारत सरकार के सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल होकर वो पाकिस्तान गईं. वहां उन्होंने ग़ज़लों के साथ-साथ ठुमरी और दादरा का भी जादू चलाया. इस आयोजन में पहली बार बेगम को ये अंदाज़ा हुआ कि हिंदुस्तान की सरहद पार भी लोग दीवानावार उनके संगीत को सुनते हैं. 1963 की अफ़गानिस्तान और 1967 की रूस यात्रा में भी वो इसी तरह सब पर ग़ालिब रहीं. इस बीच एक के बाद एक उन्होंने कई विदेश यात्राएं कीं.
ख़ुद एक तजुर्बेकार गायिका के रूप में स्थापित होने के बाद बेगम ने अपना तजुरबा नई पीढ़ी को देने का मन भी बनाया. लड़कियां गाना सीखें, इस बात के लिए वो हमेशा पेश रहीं. उनकी मां ने उन्हें गाना सिखाने के लिए जो जद्दोजहद की थी, वो उसे भूली नहीं थीं. मां के इंतक़ाल के बाद उन्होंने विधिवत लड़कियों को तालीम देना शुरू किया. उस वक्त तक सिखानेवाले उस्ताद पुरुष ही होते थे, जो अपने शिष्यों के गण्डा बांधकर सिखाना शुरू करते थे. संगीत के क्षेत्र में गण्डा बंधन की परम्परा का बड़ा महत्व है. 1952 में बेगम अख़्तर पहली महिला उस्ताद बनीं, जिन्होंने अपनी शिष्याओं का गण्डा बंधन किया. बेगम ने सबसे पहले शांति हीरानंद और अंजलि चटर्जी को गण्डा बांधकर सिखाना शुरू किया. उसके बाद दूसरी गायिकाओं ने भी अपनी शिष्याओं का गण्डा बंधन शुरू कर दिया. बेगम का सिखाने का तरीका भी नए ढंग का था. अकेले कमरे में सीखनेवाले को बैठाकर रियाज़ करवाने की वो क़ायल नहीं थीं. वे शिष्याओं को अपनी महफिल में साथ ले जातीं थीं और अपने साथ-साथ गाने को कहती थीं, और इसके बाद अगर ख़ास ज़रूरत पड़ी, तो अलग से भी सिखाती थीं. अख़्तर की शिष्याओं में शांति हीरानंद, अंजलि चटर्जी, रीता गांगुली, ममतादास, शिप्रा बोस आदि हैं. महाराज हुसैन निशात और सग़ीर खां आदि के रूप में उनके कुछ शिष्य भी रहे. बेगम ख़ुद इस्लाम में यकीन रखती थीं, लेकिन मजहबी भेदभाव से कोसों दूर थीं. उनकी शिष्याओं में ग़ैर-मुस्लिम लड़कियां ही अधिक रहीं.
शोहरत से इतर 1950 से 1974 का दौर उनकी गायिकी की शिनाख़्त के लिहाज से सबसे मज़बूत दौर था और काम के लिहाज से व्यस्ततम. देश-विदेश में अब वो हिंदुस्तानी उपशास्त्रीय गायन का सबसे बड़ा नाम थीं. 1968 में भारत सरकार ने संगीत में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया. 1972 में उन्हें केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड और 1973 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड मिला. देश के दूसरे बड़े संगीत संस्थानों ने भी उन्हें सम्मानित किया. उनके शहर लखनऊ के मशहूर भातखण्डे संगीत संस्थान ने उन्हें प्रोफेसर का पद दिया. कामयाबी की इस मसरूफ़ियत के बीच उनकी तबीयत भी उन्हें अपनी अहमियत की चेतावनी देता रहा. 1967 में उन्हें दिल का पहला दौरा पड़ा. ठीक होने के तुरंत बाद वे फिर गाने लगीं. जिंदगी के आख़िरी साल 1974 में दोबारा उन्हें दौरा पड़ा. तबीयत संभली, तो फिर गायिकी शुरू. असल में गायिकी से दूर रहना उनके बस का ही न था. अक्टूबर 1974 में उन्होंने आकाशवाणी बंबई के सम्मेलन में शिरकत की और अपने इंतक़ाल के एक हफ्ते पहले आकाशवाणी के लिए अपनी आख़िरी ग़ज़ल ‘सुना करो मेरी जां…’ रिकॉर्ड की. ये उन्हीं कैफ़ी आज़मी का कलाम था, जिन्होंने बेगम अख़्तर की गायिकी से मुतासिर होकर ही दोबारा ग़ज़लें कहना शुरू किया था.
गायन के क्षेत्र में जैसा नाम बेगम ने कमाया, वैसा लता मंगेशकर के अलावा किसी गायिका के हिस्से में नहीं आया. बेगम ख़ुद लता और बाद की तमाम गायिकाओं की प्रेरणा रहीं
30 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में गाते हुए एक बार फिर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और इसी रात उनका इंतक़ाल हो गया. 1975 में भारत सरकार ने बेगम अख़्तर को मरणोपरांत पद्मभूषण से सम्मानित किया. उनकी मौत की ख़बर सुनकर दुनियाभर में उनके प्रशंसकों की हालत बुरी थी. कहा जाता है कि लखनऊ में तो उनका एक चाहनेवाला ये ख़बर सुनकर पागल हो गया था और लखनऊ की सड़कों पर हाए अख़्तरी-हाय अख़्तरी की आवाज़ लगाता उसी तरह भटकता था जिस तरह मजनूं दश्त में. बेगम की इच्छा के मुताबिक उन्हें लखनऊ के ही पसंदबाग़ स्थित अपनी मां की कब्र के पड़ोस में दफ़नाया गया. बेगम की मौत के बाद लंबे समय तक ये जगह लगभग उपेक्षित रही. आसपास के लोगों तक को इसके बारे में जानकारी नहीं थी. फिर अभी तीन साल पहले लखनऊ की जानी-पहचानी सामाजिक संस्था ‘सनतकदा’ ने बेगम की शिष्या शांति हीरानंद के सहयोग से उनकी मज़ार का जीर्णोद्धार और सौंदर्यीकरण करवाया. साथ ही इस बात के लिए भी प्रयास किया कि इस जगह के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लोग जानें. फेसबुक पर भी बेगम अख़्तर की मज़ार का एक पेज बनाया गया. संस्था के ही प्रयास से हर साल बेगम के जन्मदिन पर यहां संगीत की एक नशिस्त भी आयोजित होती है, जिसमंे शुभा मुद्गल और शांति हीरानंद आदि बेगम को श्रद्धांजलि दे चुकी हैं.
दूरदर्शन के एक प्रसारण में कैफ़ी आजमी से
पूछा गया- आपकी पहचान नज़्मों के लिए रही
है, ग़ज़लें आपने बहुत कम कही हैं. लेकिन इन दिनों
आप फिर से ग़ज़लें कहने लगे हैं. इसकी क्या वजह है? कैफ़ी ने जवाब दिया, ‘मैंने
वापस ग़ज़लें कहना उसी वजह से शुरू किया जिस वजह से
ग़ालिब मुसव्विरी सीखना
चाहते थे. मैं ग़ज़ल इसलिए कहता
हूं ताकि मैं ग़ज़ल यानी बेगम अख़्तर से नज़दीक हो
जाऊं.’ कैफ़ी आज़मी का ये जुमला बेगम अख़्तर की
शख़्सियत के बारे
में बहुत कुछ कह जाता है. वो
सचमुच हमारे मुल्क, बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ग़ज़ल का दूसरा नाम हैं. किसी भी महफिल
में जब ग़ज़ल का
ज़िक्र छिड़ता है, तो बात बेगम अख़्तर से ही शुरू होती है और उन्हीं पर
आकर ख़त्म होती है. बेगम अख़्तर ने ग़ज़ल गायिकी
को और ग़ज़ल गायिकी ने बेगम अख़्तर को
बेपनाह शोहरत अता की. कोठे से उतरी ठेठ दरबारी शैली की ग़ज़ल गायिकी को आवाम के बीच रचा-बसा देने का करिश्मा वही कर
सकती थीं.
ग़ज़ल उनकी गायिकी का सबसे दिलकश अंदाज़ ठहरा, लेकिन उनकी ज़ंबील में ग़ज़ल के अलावा ठुमरी, चैती, दादरा,
ख़याल आदि विधाओं के भी बेशुमार
नगीने हैं. उपशास्त्रीय गायन का सम्मोहन बेगम अख़्तर
के यहां अपने शबाब पर दिखता है. जो कुछ
भी उन्होंने गाया, यूं लगा कि वो बेगम के लिए ही बना है और बेगम भी उसी के लिए ही बनी हैं. उनके अनन्य प्रशंसक
यतीन्द्र मिश्र उनकी गायिकी को विश्लेषित
करते हुए लिखते हैं,
‘उनकी शास्त्रीय संगीत की परंपरा पटियाला घराने के उस्ताद अता मोहम्मद ख़ान और किराना
घराने के दिग्गज
उस्ताद अब्दुल वाहिद ख़ान से
संबद्ध रही है. वे जहां पटियाला घराने की गंभीर गायकी
में अपने उस्ताद से ग़ज़ल,
ठुमरी और दादरा सीखने में व्यस्त रहीं,
ठीक उसी समय उन्हें किराना घराने
के ख़याल की बारीकियों को सीखने का अवसर मिला. बेग़म
अख़्तर की पूरी संगीत यात्रा,
इन्हीं दो घरानों के बीच किसी नाजुक बिन्दु पर संतुलित मिलती है’. यतीन्द्र के मुताबिक उनके लिए संगीत सिरजना सिर्फ़ राग, ताल और धुनों पर ही आधारित काम नहीं था, बल्कि वे गीत के
शब्दों और बोलों की सटीक अर्थ-व्याप्ति के लिए भावों को बहुत गौर से बरतने में तल्लीन दिखाई पड़ती हैं.
बिब्बी से अख़्तरी, अख़्तरी से अख़्तरीबाई फैज़ाबादी
और अख़्तरीबाई फैज़ाबादी से बेगम अख़्तर बनने के सफ़र में ग़म और गायिकी
दोनों उनके हमसफ़र बने रहे
बेगम अख़्तर की गायिकी के इस वैभव के नज़दीक
जाने के लिए उनके जीवन के
नज़दीक जाना जरूरी है. अंतिम
दिनों में एक उद्घोषिका ने रेडियो पर उनको बेग़म
अख़्तर कह कर संबोधित कर दिया,
तो बेगम ने उससे कहा, ‘बेटी पूरी ज़िंदगी तो
ग़मों के बीच ही गुज़री है,
मैं बेग़म कहां हूं?’ बिब्बी से अख़्तरी, अख़्तरी से अख़्तरीबाई फैज़ाबादी और अख़्तरीबाई
फैज़ाबादी से बेगम
अख़्तर बनने के सफ़र में ग़म और
गायिकी दोनों उनके हमसफ़र बने रहे. जन्म फैज़ाबाद के
करीब भदरसा कस्बे में जुड़वा बहन के साथ 7 अक्टूबर 1914 को हुआ. नाम
मिला बिब्बी उर्फ अख़्तरी. उनकी मां मुश्तरीबाई अपने ज़माने की मशहूर गानेवाली थीं, जबकि वालिद
सैयद असग़र हुसैन सिविल जज थे,
जिन्होंने मुश्तरी को किसी महफिल में सुना था और फिर दूसरी बीवी
के तौर पर अपने घर ले
आए थे. अख़्तरी अभी तीन साल की
भी नहीं हुईं थीं कि उनकी जुड़वा बहन अनवरी का इंतक़ाल
हो गया और इसके थोड़े ही वक्त बाद उनके वालिद ने उनकी मां मुश्तरी को छोड़ दिया. मां पर पड़ी दुखों की इस दोहरी
मार को अख़्तरी ने भी
बहुत छोटी उम्र में ही न केवल
महसूस किया, बल्कि उनके साथ-साथ भोगा भी. अख़्तरी की मां उनके सबसे नज़दीक थीं. उनकी पूरी
शख़्सियत पर मां की अटूट
छाप दिखाई देती है. मां ने तमाम
मुसीबतों और मुफ्लिसी के बीच जिस तरह अख़्तरी की
तरबियत की, वो भी अपने आप में एक मिसाल है. आकाशवाणी के
लिए बेगम अख़्तर के जीवन पर ‘कुछ नक़्श तेरी याद के’ जैसा
चर्चित धारावाहिक
लिखने वाले पत्रकार अटल तिवारी
मुश्तरी के बारे में एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं- ‘मुश्तरी ने जिस तरह का अविश्वसनीय संघर्ष अपनी
बेटी का मुस्तकबिल
संवारने के लिए किया, वो उन्हंे किसी प्रेरणाप्रद नायिका की तरह सामने लाता है. उस वक़्त के समाज में बेटी को अकेले पालना, उसे कोठे की रिवायत से निकालने के लिए अलग-अलग शहरों में ले जाकर बड़े-बड़े
उस्तादों से तालीम
दिलवाना, बेटी की तालीम के लिए अपना सब कुछ बेच देना वगैरह इस
बात की बानगी
है कि मुश्तरी में किस दर्जे की
दूरदर्शिता, प्रगतिशीलता और विद्रोह था.’
बचपन की पढ़ाई-लिखाई में अख़्तरी का ज्यादा मन
नहीं लगा, अलबत्ता फैज़ाबाद के मिशन स्कूल में वो टीचर की चोटी काट देने
जैसे कारनामों से
ज़्यादा जानी जाती रहीं. लेकिन
मां से नज़दीकी की वजह से गायिकी की तरफ बचपन से ही
उनका संजीदा रुज्हान रहा. इसे देखते हुए मां ने मशहूर सारंगी वादक इमदाद अली खां से अख़्तरी को सिखाने को कहा. अख़्तरी
ने अभी सीखना
शुरू ही किया था कि फैज़ाबाद में
उनका घर जला दिया गया. पतियों द्वारा छोड़ी जा
चुकी तवायफों के ऊपर इस तरह के ख़तरे उन दिनों आम थे. फैज़ाबाद से दाना-पानी उठने के बाद मां-बेटी ने बिहार के गया का
रुख किया. गया पहुंचने
के बाद मुश्तरी ने बेटी की संगीत
शिक्षा की तरफ और संजीदगी से ध्यान दिया. गहने, बर्तन बेच-बेचकर उन्होंने बेटी को पहले सख़ावत हुसैन
और फिर पटियाला
घराने के उस्ताद अता मोहम्मद से
तालीम दिलवाई. मां के अलावा अख़्तरी की गायिकी पर
बुनियादी असरात अता मोहम्मद के ही दिखते हैं. सीखा भी अख़्तरी ने सबसे ज़्यादा उन्हीं से.
अख़्तरी की पूरी शख़्सियत पर मां की अटूट छाप
दिखाई देती है. मां ने तमाम मुसीबतों और मुफ्लिसी के बीच जिस तरह अख़्तरी
की तरबियत की, वो भी अपने आपमें एक मिसाल है
1924 में अख़्तरी मां के साथ कोलकाता चली आईं, जो उस वक्त गीत, संगीत और नाटक का गढ़ था, फिल्म
इंडस्ट्री भी वहीं थी. अता मोहम्मद से उनकी तालीम लंबे वक्त तक जारी रही. इसके बाद उन्होंने उस्ताद
अब्दुल वाहिद खां और अंत
में झंडे खां से सीखा. इस
दरमियान अख़्तरी कोलकाता की छोटी-मोटी निजी नशिस्तों
में जाने लगी थीं. लेकिन कोलकाता में उनकी गायिकी ने पहले-पहल धूम सिर्फ बीस साल की उम्र में 1934 में मचाई, जब भारत
कोकिला सरोजिनी नायडू
की मौजूदगी में उन्होंने बिहार
भूकंप पीड़ितों की मदद के लिए एक आयोजन में स्थानापन्न
कलाकार के बतौर गाते हुए सैंकड़ों दर्शकों पर जादू कर दिया था. इस जलसे की तब के कलकत्ता में बड़ी चर्चा हुई और इसी
के बाद अख़्तरी
अख़्तरीबाई फैज़ाबादी बन गईं. लेकिन
गाने वाली बाइयों के साथ होनेवाला व्यवहार
उन्हें हमेशा सालता रहा. इस सिलसिले में उनका क़ौल मशहूर है, ‘इस समाज को
क्या कहा जाए, जहां मर्द अच्छा गाता है, तो उस्ताद या पंडित कहलाता है और औरत अच्छा गाती है तो बाई कहलाती है.’
1934 में ही मेगाफोन कंपनी के मालिक जेएन घोष ने उन्हें छह
ग़ज़लें रिकॉर्ड करने का प्रस्ताव दिया, जिसे अख़्तरी ने कुबूल कर लिया. रिकॉर्ड की गई उनकी पहली ग़ज़ल थी, वो असीरे
दामे बला हूं. मेगाफोन द्वारा जारी किया गया ये
रिकॉर्ड चल निकला और अख़्तरी ने पहली बार शोहरत का स्वाद महसूस किया. इसके बाद उनके ठुमरी, दादरा,
चैती और ख़याल गायिकी के भी कई रिकॉर्ड्स निकले और कामयाब रहे. जिसके चलते 1936 में ऑल इंडिया रेडियो, कोलकाता ने
भी उन्हें रिकॉर्ड किया. इस बीच वो बतौर अभिनेत्री फिल्म और थिएटर में भी काम करना शुरू कर चुकी थीं. लैला मजनूं (1934) और नई दुल्हन (1934)
उनके मशहूर नाटक थे. साथ ही नल
दमयंती (1933), एक दिन का बादशाह (1933), मुमताज़
बेगम (1934), अमीना (1934), रूपकुमारी
(1934), जवानी का नशा (1935),
नसीब का चक्कर (1936) जैसी फिल्मों में बतौर मुख्य अभिनेत्री काम करने के बाद उनकी शोहरत अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई
थी और इसका सीधा
फ़ायदा उनकी व्यावसायिक गायिकी
की साख को हुआ था. मेगाफोन कंपनी अब उनके रिकॉर्ड्स
का बाकायदा विज्ञापन जारी करती थी,
जिस पर उनका परिचय लिखा होता था- ‘अख़्तरीबाई फैज़ाबादी फिल्म स्टार’. इस दौरान एक फिल्म कंपनी बिना उनका बकाया चुकाए बंद हो गई, तो उन्होंने उस पर मुकदमा करने की भी ठान ली. इसी सिलसिले में 1937 में
लखनऊ के बैरिस्टर इश्तियाक़ अहमद सिद्दीक़ी से उनकी पहली मुलाक़ात हुई थी. इतना ही नहीं अब उन्हें
हिंदुस्तान के प्रमुख
दरबारों से ख़ुसूसी न्यौता भी
मिलने लगा था. निज़ाम हैदराबाद ने उनके लिए सौ रुपये
प्रतिमाह का वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया था, तो नवाब
रामपुर ने उन्हें अपने दरबार में अहम पदवी से नवाजा था. अख़्तरी
अब आधा वक्त रामपुर
में और आधा लखनऊ में गुज़ारने
लगी थीं.
1924 में अख़्तरी कोलकाता आईं, जो उस वक्त गीत, संगीत और नाटक का गढ़ था. कोलकाता
में उनकी गायिकी ने पहले-पहल धूम सिर्फ बीस साल की उम्र में मचाई
1938 में अख़्तरी ने लखनऊ में अपना ख़ुद का घर बनवाया, वो भी हज़रतगंज जैसे इलाके
के पास. ये कदम उनके रुतबे का पता देता है, क्योंकि उस
वक्त तक लखनऊ की ज़्यादातर गानेवालियां चौक या दूसरे
इलाक़ों की गलियों में रहती आईं थी. हज़रतगंज
के आसपास उनका क़याम कभी नहीं रहा था. अख़्तरी ने ये दस्तूर बदला, क्योंकि
शहर के ज़्यादातर रईस हज़रतगंज के आसपास ही रहते थे. व्यावसायिक तौर पर ये जगह उनके लिए ज़्यादा मुफ़ीद थी.
फिल्म अभिनेत्री
होने के बावजूद उनकी ज़्यादा
मज़बूत पहचान गायिका की ही थी. रामपुर दरबार से जुड़ जाने के बाद भी लखनऊ में वो महफ़िलों का
हिस्सा लगातार बनी रहीं.
मशहूर गायिका मालिनी अवस्थी बेगम
की गायिकी के बारे में दो महत्वपूर्ण बातें कहती
हैं, ‘पहली बात तो ये है कि वो जिस मिट्टी की थीं
यानी लखनऊ-फैज़ाबाद उसके संगीत की तमाम विधाओं को
उन्होंने इस ख़ूबी के साथ गाया कि वो सभी
पूरी दुनिया में पहुंच गईं. ठुमरी,
दादरा, चैती,
होरी, कजरी,
मर्सिया, ग़ज़ल सब कुछ. उन्होंने अपने आपको कभी किसी एक विधा (जैसे
ग़ज़ल) में महदूद नहीं किया. ये काम उनके चाहनेवालों
ने किया. दूसरी बात कि
उन्होंने कठिन चीज़ें भी जिस
सहजता से गा दी हैं,
वो बताता है कि उनकी अपनी आवाज़ पर कितनी पकड़ थी, कितनी समझ
थी, कितना परिचय था. ये लंबे रियाज़ के बाद आता है. इसी का नतीजा है कि बेगम जब गाती हैं, तो बेहद कठिन चीज़ को भी बेहद आसानी से निभा ले जाती हैं और साधारण से
साधारण श्रोता को भी
मंत्रमुग्ध कर देती हैं.’
1940 के आस पास उनका फ़िल्मों से जी उचाट होने लगा था. क्योंकि
उनके उस्ताद अता मोहम्मद को उनका फिल्मों में काम
करना गायिकी के साथ अन्याय
लगता था. वे इसके ख़िलाफ़ थे. नवाब
रामपुर भी उनके फ़िल्मों में काम करने के पक्ष में
नहीं थे. इसलिए महबूब खान की फिल्म रोटी (1942) के बाद उन्होंने फिल्मों से किनारा कर लिया. अब वो पूरा ध्यान
अपनी गायिकी पर देने
लगीं. उम्र अब तीस के करीब पहुंच
रही थी, इसलिए लड़कपन की शोख़ी भी अब संजीदगी में बदल रही थी. ज़िंदगी एक दूसरे तरह का
स्थायित्व चाह रही थी.
नवाब रामपुर ने उनसे शादी करने
की ख्वाहिश भी जताई,
लेकिन अख़्तरी ने ख़ुद को नाचीज़ कहते हुए प्रस्ताव ठुकरा दिया. उन्होंने
अपने लिए लखनऊ के
बैरिस्टर अब्बासी को चुना, जिनसे उनकी पुरानी आश्नाई थी. दोनों एक-दूसरे के क़ायल भी थे. मगर अख़्तरी के गाने-बजाने का पेशा
अब्बासी और उनके बीच
दीवार बना हुआ था. फिर एक दिन
अख़्तरी ने फैसला किया कि वो गाना छोड़कर अब्बासी का
हाथ थामेंगी. हुआ भी ऐसा ही. 1945
में अख़्तरी बाई फैज़ाबादी बेगम अख़्तर बन गईं और गायिकी से उनका रिश्ता टूट गया.
फिल्म अभिनेत्री होने के बावजूद अख्तरी की
ज़्यादा मज़बूत पहचान गायिका की ही थी. रामपुर दरबार से जुड़ने के बाद भी लखनऊ
में वो महफ़िलों का हिस्सा लगातार बनी रहीं
बेगम दुनिया में गाने के लिए ही आईं थीं. उनकी
मां ने उनको ढाला भी ऐसे
ही था. बेगम के हज़ारों
चाहनेवालों को उनके गाना छोड़ने का रंज था. इस बात से सबसे ज़्यादा दुखी उनकी मां मुश्तरी ही थीं. उन्होंने
अपना पूरा जीवन
अख़्तरी के लिए वक़्फ कर दिया था.
मुसीबतें उठा-उठाकर उनको तालीम दिलवाई थी. यहां तक
कि अख़्तरी जब स्टार बन गईं थीं,
तब भी मुश्तरी उनके एक-एक कदम का हिसाब रखतीं थीं और उनको गाहे-बगाहे सलाह भी देती
रहती थीं. बेगम ने
गाना छोड़ा, तो उनकी मां पूरा-पूरा दिन उनके रिकॉर्ड सुनती रहतीं
और रोती रहतीं. खुद बेगम अख़्तर की हालत गाने के बिना
बेहाल थी. अब वो अकेलेपन और अवसाद में
घिर गईं थीं, जिसने धीरे-धीरे कई बीमारियों को दावत दे दी
थी. तबीयत जब ज़्यादा ख़राब हुई, तो डाक्टरों ने उनके पति अब्बासी से कहा कि अब इन्हें गाने की इजाज़त दे दी जाए, तभी तबीयत संभल सकती है. आख़िरकार शौहर ने हारकर बेगम को वापस गाने के लिए कहा. इसके बाद बेगम
ने चार साल के तवील
अंतराल के बाद 1949 में ऑल इंडिया रेडियो के लिए रिकॉर्डिंग की.संगीत के
साथ जैसे उन्हें जीवन वापस मिल गया था. गाना दोबारा शुरू करते हुए उन्हें यह डर था कि
पता नहीं इतने समय बाद वो गा भी पाएंगी या नहीं और लोगों पर उनका जादू वैसे ही चलेगा या नहीं. लेकिन
जब उन्होंने गाया तो दोबारा उसी तरह की बेपनाह मकबूलियत पाई. ख़ासतौर पर इस दौर में गाई उनकी ग़ज़लों में तो एक अलग
ही तासीर मिलती है. वो सारा दर्द जो उन्होंने गायिकी से दूर रहकर बीमारी में भोगा, इन ग़ज़लों में उजाले की तरह चमकता है. ऐसी तड़प उनकी पहले दौर की
गायिकी में नहीं थी. हालांकि उसमें भी वो कशिश मौजूद है जो हमेशा बेगम अख़्तर की गायिकी का हुस्न
बनी रही. हैरत की बात ये है कि गायिकी की वजह से ज़्यादातर कलाकार खाने-पीने में
जिस तरह का परहेज़ करते हैं वो भी उन्होंने कभी नहीं किया. वो अपनी आवाज़ को ख़ुदा की देन मानती थीं. इसी के चलते
रिकॉर्डिंग के दिन भी अचार से लेकर आईसक्रीम तक सब चाव से खाती थीं और सिगरेट भी पीती थीं. उनकी
शेरफहमी कमाल की थी. यही वजह है कि रागदारी की रियाज़त में भी उन्होंने शेर के
हुस्न को बरकरार रखा. जब वो गा रही होतीं तो बैकग्राउण्ड में साज़िन्दों को
साज़ लगभग गुम रखने की ताकीद थी ताकि शेर पूरा उभर कर आए. ग़ज़ल के अलावा
उपशास्त्रीय संगीत की दूसरी विधाओं जैसे ठुमरी, दादरा और ख़याल गायिकी में भी उनका अंदाज़ एकदम मौलिक था. गायिकी में
पंजाब और पूरब अंग का जैसा अद्भुत समन्वय उन्होंने किया उसने बेगम अख़्तर को एकदम निराला बना
दिया. हालांकि विशुद्ध शास्त्रीय गायन में उनकी ज़्यादा रुचि नहीं रही, लेकिन ग़ज़ल और दूसरी चीज़ें गाते हुए वो बिल्कुल
शास्त्रीय संगीत जैसा माहौल रच देती थीं.
1945 में लखनऊ के बैरिस्टर अब्बासी को अपना हमसफ़र चुना. इसके
बाद अख़्तरी बाई फैज़ाबादी बेगम अख़्तर बन गईं और गायिकी
से उनका रिश्ता कुछ साल के लिए टूट गया1951 में कोलकाता में हुए संगीत सम्मेलन में भी उन्होंने शिरकत की, जिसमें शास्त्रीय संगीत के बड़े-बड़े पुरोधा हिस्सा ले रहे थे. यहां भी वो बेहद कामयाब रहीं. आमजन के अलावा कई पंडितों-उस्तादों ने भी उनकी जी खोलकर तारीफ़ की. भारत रत्न मरहूम बिस्मिल्ला खां ने एक दफा बेगम अख़्तर की गायिकी के बारे में बात करते हुए कहा था- ‘बेगम अख़्तर के गले में एक अजीब कशिश थी. जिसे अकार की तान कहते हैं, उसमें अ करने पर उनका गला कुछ फट जाता था और ये उनकी ख़ूबी थी. मगर शास्त्रीय संगीत में यह दोष माना जाता है. एक बार हमने कहा कि बाई कुछ कहो. ज़रा कुछ सुनाओ. वे बोलीं-अमां क्या कहें, का सुनाएं. हमने कहा कुछ भी. बेगम गाने लगीं- निराला बनरा दीवाना बना दे. एक दफे, दो दफे कहने के बाद जब दीवाना बना दे में उनका गला खिंचा तो हमने कहा अहा ! यही तो सितम है तेरी आवाज़ का. वो गला दुगुन-तिगुन के समय लहरा के मोटा हो जाता था. वही तो कमाल था बेगम अख़्तर में.’
दोबारा गाना शुरू करने के बाद जल्द ही बेगम की ज़िंदगी पटरी पर आ गई थी. उनके पास लगातार गाने के प्रस्ताव आ रहे थे. लेकिन इसी बीच 1951 में ही उनकी मां मुश्तरी की मौत के बाद वो तीन-चार महीने फिर संगीत से दूर रहीं. सदमे में थीं. उनका ज़्यादातर वक्त लखनऊ के पसंदबाग़ स्थित अपनी मां की कब्र पर गुज़रा. उनकी ज़िंदगी में मां की भूमिका ही ऐसी थी, जिसकी पूर्ति संभव नहीं थी. बहरहाल तबीयत कुछ संभली तो उन्होंने फिर से गाना शुरू किया. 1952 में बेगम अख़्तर ने ऑल इंडिया रेडियो के अखिल भारतीय संगीत समारोह में शिरकत की और महफिल लूट ली. इसके बाद फिर से बेगम अख़्तर की शोहरत आसमान छूने लगी. रिकॉर्डिंग पर रिकॉर्डिंग होने लगीं. वो पूरे मुल्क में गाने के लिए बुलाई जाने लगीं. फिल्मों के ऑफर भी दोबारा आने लगे. मगर बेगम ने अभिनय पर हामी नहीं भरी. पार्श्वगायन भी नाचरंग (1953), दानापानी (1953) और एहसान (1954) जैसी कुछ ही फ़िल्मों के लिए किया. हालांकि जलसाघर (1958) में ज़रूर वो गायन के साथ-साथ स्क्रीन पर भी दिखीं, क्योंकि ये अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहचाने गए फिल्मकार सत्यजीत रे की फिल्म थी, जिनके आग्रह को बेगम ठुकरा नहीं पाईं. अब उन्हें विदेशों से भी न्यौते मिलने लगे थे. ख़ुद भारत सरकार उनसे सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडल का सदस्य बनने का आग्रह कर चुकी थी. 1961 में भारत सरकार के सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल होकर वो पाकिस्तान गईं. वहां उन्होंने ग़ज़लों के साथ-साथ ठुमरी और दादरा का भी जादू चलाया. इस आयोजन में पहली बार बेगम को ये अंदाज़ा हुआ कि हिंदुस्तान की सरहद पार भी लोग दीवानावार उनके संगीत को सुनते हैं. 1963 की अफ़गानिस्तान और 1967 की रूस यात्रा में भी वो इसी तरह सब पर ग़ालिब रहीं. इस बीच एक के बाद एक उन्होंने कई विदेश यात्राएं कीं.
ख़ुद एक तजुर्बेकार गायिका के रूप में स्थापित होने के बाद बेगम ने अपना तजुरबा नई पीढ़ी को देने का मन भी बनाया. लड़कियां गाना सीखें, इस बात के लिए वो हमेशा पेश रहीं. उनकी मां ने उन्हें गाना सिखाने के लिए जो जद्दोजहद की थी, वो उसे भूली नहीं थीं. मां के इंतक़ाल के बाद उन्होंने विधिवत लड़कियों को तालीम देना शुरू किया. उस वक्त तक सिखानेवाले उस्ताद पुरुष ही होते थे, जो अपने शिष्यों के गण्डा बांधकर सिखाना शुरू करते थे. संगीत के क्षेत्र में गण्डा बंधन की परम्परा का बड़ा महत्व है. 1952 में बेगम अख़्तर पहली महिला उस्ताद बनीं, जिन्होंने अपनी शिष्याओं का गण्डा बंधन किया. बेगम ने सबसे पहले शांति हीरानंद और अंजलि चटर्जी को गण्डा बांधकर सिखाना शुरू किया. उसके बाद दूसरी गायिकाओं ने भी अपनी शिष्याओं का गण्डा बंधन शुरू कर दिया. बेगम का सिखाने का तरीका भी नए ढंग का था. अकेले कमरे में सीखनेवाले को बैठाकर रियाज़ करवाने की वो क़ायल नहीं थीं. वे शिष्याओं को अपनी महफिल में साथ ले जातीं थीं और अपने साथ-साथ गाने को कहती थीं, और इसके बाद अगर ख़ास ज़रूरत पड़ी, तो अलग से भी सिखाती थीं. अख़्तर की शिष्याओं में शांति हीरानंद, अंजलि चटर्जी, रीता गांगुली, ममतादास, शिप्रा बोस आदि हैं. महाराज हुसैन निशात और सग़ीर खां आदि के रूप में उनके कुछ शिष्य भी रहे. बेगम ख़ुद इस्लाम में यकीन रखती थीं, लेकिन मजहबी भेदभाव से कोसों दूर थीं. उनकी शिष्याओं में ग़ैर-मुस्लिम लड़कियां ही अधिक रहीं.
शोहरत से इतर 1950 से 1974 का दौर उनकी गायिकी की शिनाख़्त के लिहाज से सबसे मज़बूत दौर था और काम के लिहाज से व्यस्ततम. देश-विदेश में अब वो हिंदुस्तानी उपशास्त्रीय गायन का सबसे बड़ा नाम थीं. 1968 में भारत सरकार ने संगीत में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया. 1972 में उन्हें केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड और 1973 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड मिला. देश के दूसरे बड़े संगीत संस्थानों ने भी उन्हें सम्मानित किया. उनके शहर लखनऊ के मशहूर भातखण्डे संगीत संस्थान ने उन्हें प्रोफेसर का पद दिया. कामयाबी की इस मसरूफ़ियत के बीच उनकी तबीयत भी उन्हें अपनी अहमियत की चेतावनी देता रहा. 1967 में उन्हें दिल का पहला दौरा पड़ा. ठीक होने के तुरंत बाद वे फिर गाने लगीं. जिंदगी के आख़िरी साल 1974 में दोबारा उन्हें दौरा पड़ा. तबीयत संभली, तो फिर गायिकी शुरू. असल में गायिकी से दूर रहना उनके बस का ही न था. अक्टूबर 1974 में उन्होंने आकाशवाणी बंबई के सम्मेलन में शिरकत की और अपने इंतक़ाल के एक हफ्ते पहले आकाशवाणी के लिए अपनी आख़िरी ग़ज़ल ‘सुना करो मेरी जां…’ रिकॉर्ड की. ये उन्हीं कैफ़ी आज़मी का कलाम था, जिन्होंने बेगम अख़्तर की गायिकी से मुतासिर होकर ही दोबारा ग़ज़लें कहना शुरू किया था.
गायन के क्षेत्र में जैसा नाम बेगम ने कमाया, वैसा लता मंगेशकर के अलावा किसी गायिका के हिस्से में नहीं आया. बेगम ख़ुद लता और बाद की तमाम गायिकाओं की प्रेरणा रहीं
30 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में गाते हुए एक बार फिर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और इसी रात उनका इंतक़ाल हो गया. 1975 में भारत सरकार ने बेगम अख़्तर को मरणोपरांत पद्मभूषण से सम्मानित किया. उनकी मौत की ख़बर सुनकर दुनियाभर में उनके प्रशंसकों की हालत बुरी थी. कहा जाता है कि लखनऊ में तो उनका एक चाहनेवाला ये ख़बर सुनकर पागल हो गया था और लखनऊ की सड़कों पर हाए अख़्तरी-हाय अख़्तरी की आवाज़ लगाता उसी तरह भटकता था जिस तरह मजनूं दश्त में. बेगम की इच्छा के मुताबिक उन्हें लखनऊ के ही पसंदबाग़ स्थित अपनी मां की कब्र के पड़ोस में दफ़नाया गया. बेगम की मौत के बाद लंबे समय तक ये जगह लगभग उपेक्षित रही. आसपास के लोगों तक को इसके बारे में जानकारी नहीं थी. फिर अभी तीन साल पहले लखनऊ की जानी-पहचानी सामाजिक संस्था ‘सनतकदा’ ने बेगम की शिष्या शांति हीरानंद के सहयोग से उनकी मज़ार का जीर्णोद्धार और सौंदर्यीकरण करवाया. साथ ही इस बात के लिए भी प्रयास किया कि इस जगह के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लोग जानें. फेसबुक पर भी बेगम अख़्तर की मज़ार का एक पेज बनाया गया. संस्था के ही प्रयास से हर साल बेगम के जन्मदिन पर यहां संगीत की एक नशिस्त भी आयोजित होती है, जिसमंे शुभा मुद्गल और शांति हीरानंद आदि बेगम को श्रद्धांजलि दे चुकी हैं.
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